बुद्धिनाथ मिश्र
का
जन्म
1 मई 1949 को
समस्तीपुर
(बिहार)
के
छोटे
से
गाँव
देवधा
में
हुआ।
2009 में ओएनजीसी
के
देहरादून,
उत्तरांचल
स्थित
मुख्यालय
में
मुख्य
प्रबंधक
(राजभाषा)
पद
से
सेवामुक्त
मिश्रजी
के
अब
तक
चार
नवगीत
संग्रह—
‘जाल
फेंक
रे
मछेरे!’
(1983), ‘जाड़े में
पहाड़'
(2001), शिखरिणी (2005) एवं
‘ऋतुराज
एक
पल
का’(2013);
दो
मैथली
गीत
संग्रह—
'क्यो
नहि
दै
अछि
आगि
(2016) एवं 'पुरना
सतघरवा
मे
बैसल'
(2020); एक समाजसेवी
की
जीवनी—
‘नोहर
के
नाहर’
(1991); एक आलेखों
का
संग्रह— 'निरख सखी
ये
खंजन
आए'
(2016) आदि प्रकाशित
हो
चुके
हैं।
इनके
मैथिली
में
लिखे
संस्कार
गीतों
के
दो
मिनी
एल्बम
(वाराणसी),
संगीतबद्ध
श्रृंगारगीतों
का
एक
ऑडियो
कैसेट—
'अनन्या’(कलकत्ता)
तथा
सस्वर
काव्यपाठ
के
दो
कैसेट—
‘काव्यमाला’और
‘जाल
फेंक
रे
मछेरे!’
(वीनस
कंपनी,
मुंबई)
से
रिलीज
हो
चुके
हैं।
इनकी
रचनाएँ
‘नवगीत
दशक-
तीन’
(सं.—
डॉ.
शम्भुनाथ
सिंह,
1984), 'नवगीत अर्द्धशती'
(सं.—
डॉ.
शम्भुनाथ
सिंह,
1986), 'स्वान्तः सुखाय
: हज़ार वर्ष
की
हिन्दी
कविता'
(सं.—
कुमुदिनी
खेतान,
1991), 'नये-पुराने'
: 'गीत अंक-
दो'
(सं.—
दिनेश
सिंह,
1998), 'धार पर
हम'
(सं.—
वीरेन्द्र
आस्तिक,
1998), ‘श्रेष्ठ हिन्दी
गीत
संचयन’
(सं.—
कन्हैया
लाल
नंदन,
2001), 'अक्खर खम्भा'
(सं.—
देवशंकर
नवीन,
2008), 'शब्दायन : दृष्टिकोण
एवं
प्रतिनिधि'
(सं.-
निर्मल
शुक्ल,
2012), 'गीत वसुधा'
(सं.—
नचिकेता,
2013), 'नयी सदी
के
नवगीत
- खण्ड एक’
(सं.—
डॉ
ओमप्रकाश
सिंह,
2016), 'सहयात्री समय
के'
(सं.—
डॉ
रणजीत
पटेल,
2016), 'समकालीन गीतकोश'
(सं.—
नचिकेता,
2017), 'नवगीत वाङ्मय' (सं.— अवनीश सिंह चौहान, 2021) आदि में
संकलित
हो
चुकी
हैं।
इनके
साहित्यिक
अवदान
को
रेखांकित
करने
हेतु
'नये-पुराने'
पत्रिका
का
ई-अंक—
'बुद्धिनाथ
मिश्र
की
रचनाधर्मिता'
(मार्च
2011) 'रचनाकार' पर
और
'बुद्धिनाथ
मिश्र
की
रचनाधर्मिता'
(सं.—
अवनीश
सिंह
चौहान,
2013) पुस्तक का
प्रकाशन
किया
जा
चुका
है।
उत्तर
प्रदेश
हिंदी
संस्थान,
लखनऊ
से
'साहित्य
भूषण'
(2012) सहित इन्हें
लगभग
एक
दर्जन
सम्मानों/
पुरस्कारों
से
अलंकृत
किया
जा
चुका
है।
बुद्धिनाथ मिश्र से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत
अवनीश
सिंह
चौहान—
आपका जन्म कब
और कहाँ हुआ।
आपका बचपन कैसे
बीता? आपकी शिक्षा-दीक्षा कहाँ से
हुई? और कालांतर
में आपने जीविकोपार्जन
के लिए किस-किस प्रकार
के कार्य किये?
बुद्धिनाथ मिश्र— एक साथ कई सवाल! संक्षेप में जवाब देना पड़ेगा। मेरा जन्म समस्तीपुर (बिहार) के देवधा गाँव में 4 अक्टूबर,1947 को (कागजी जन्मतिथि 1 मई, 1949 ) हुआ था। तब यह क्षेत्र दरभंगा जनपद में आता था। उस समय दरभंगा जिले में दो देवधा गाँव थे। एक मेरा, जो मंगलगढ़ के पास था और दूसरा जयनगर के पास। फरियाने के लिए डाक विभाग ने मेरे गाँव के प्रतापी जमींदार बाबू गीता सिंह का नाम जोड़कर उसे 'गीता देवधा ' कर दिया (यानी गीता बाबू वाला देवधा), जो 1972 में समस्तीपुर सबडिवीजन को जिला बना देने के बाद अप्रासंगिक हो गया। जयनगर वाला देवधा दरभंगा जिले में रह गया। संस्कृत पंडितों का परिवार होने के कारण मेरी बुनियादी शिक्षा संस्कृत की ही रही। शब्दरूप, धातुरूप, अमरकोश, तर्क संग्रह, लघु कौमुदी। इन्हें रटना था, उसी तरह, जैसे सबैया, अढ़ैया, पहाड़े रटने होते थे। गाँव में कुछ दिन खानगी और कुछ मास मिडिल स्कूल में (जिसे डोमवा स्कूल कहा जाता था) पढ़ने के बाद, बड़े भाई के साथ 1957 में काशी चला गया। कुछ साल वहाँ बिताने के बाद, 1961 में वहाँ से रेवतीपुर (गाजीपुर) के गुरुकुल-नुमा आदर्श श्री ब्रह्मर्षि संस्कृत महाविद्यालय पहुँच गया। वहाँ मैंने दो साल की पूर्व मध्यमा परीक्षा, जो हाई स्कूल के समकक्ष थी, एक साथ दी और उसमें उत्तीर्ण हो गया। उस परीक्षा के फॉर्म में मेरे कक्षा अध्यापक ने मेरी जन्म तिथि 1 मई,1949 लिख दी। वही मेरे कैरियर में पत्थर की लकीर बन गयी। उन दिनों ऐसा होना स्वाभाविक था। लगभग 90 प्रतिशत लोग मेरी तरह ही 'द्विज ' थे, यानि उनके जन्म की दो तारीखें थीं— एक घर वाली और दूसरी स्कूल वाली। रेवतीपुर प्रवास ने मेरे जीवन को पगडंडी से उठाकर कच्ची सड़क पर ला दिया। मैंने पारम्परिक संस्कृत शिक्षा लेते हुए 1965 में यूपी बोर्ड से आईए की परीक्षा प्राइवेट में दी और अच्छे अंकों से पास भी हो गया। उसके बाद आगे की पढाई के लिए बनारस आया और फिर मेरा जीवन पक्की सड़क पर दौड़ने लगा। मैंने बीएचयू से बीए (ऑनर्स) और तदनन्तर 1969 में एमए (अंग्रेजी) किया। इस दौरान 1966 से मेरे लेख 'आज' दैनिक में छपने लगे थे, जिनके पारिश्रमिक से मेरा जेब खर्च चलता था।
1969 में एमए की परीक्षा देने के पाँच दिनों के बाद ही मेरी शादी हो गयी। उसकी सूचना मुझे एक दिन पहले गाँव आने पर ही मिली थी। विवाह के बाद गाँव से बनारस लौटने पर मैं अचानक कविसम्मेलन के मंच से जुड़ गया। गीत के नयेपन, मधुर स्वर और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण कुछ ही दिनों में इतना लोकप्रिय हो गया कि नीरज जी और सोम ठाकुर जी जैसे बड़े गीतकारों ने मुझे नौकरी न करने और मंच पर बने रहने की सलाह दी। प्रारम्भ में काशी के पं चंद्रशेखर मिश्र, डॉ शम्भुनाथ सिंह, आजमगढ़ के सूँड़ फैजाबादी (दानबहादुर सिंह), लखनऊ में ठाकुर प्रसाद सिंह जी, पटना में शंकर दयाल सिंह जी और दिल्ली में रमानाथ अवस्थी जी का भरपूर संरक्षण और मार्गदर्शन मिला। बाद में देश भर में वरदहस्त मेरी ओर बढे और लगभग हर नगर, हर जनपद में मेरे हितैषी काव्यप्रेमी मेरी प्रशंसा करने लगे।
तीन साल तो सब ठीक-ठाक चला। उसके बाद मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। उसी समय 'आज' दैनिक के स्वामी सत्येन्द्र कुमार गुप्त ने मुझे साहित्य संपादक पद पर आने का प्रस्ताव दिया, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार लिया। संयोग से, उसी शाम मुझे घोसी डिग्री कॉलेज से भी अंग्रेजी प्रवक्ता का नियुक्तिपत्र मिला। चूँकि मेरे गाँव में पढ़े-लिखे लोगों का एक ही व्यवसाय अध्यापन था, इसलिए मैंने नयी लीक पर चलने का निर्णय किया। गाँव के लोगों की स्थिति यह थी कि अख़बार में छपे लेख को पढ़ने के बजाय यह समझने आते थे कि मैंने उतने महीन अक्षर लिखे कैसे! उस समय बनारस में 'सन्मार्ग' और 'गाण्डीव' ये दो सायंकालीन दैनिक थे। इनके अलावा नया-नया दैनिक 'जनवार्ता' निकला था, जिसमें कुछ दिनों तक त्रिलोचन शास्त्री भी रहे। 'जनवार्ता' को टक्कर देने के लिए 'आज' सायंकालीन दैनिक निकला, जिसमें शशि शेखर, राम मोहन पाठक, वशिष्ठ मुनि ओझा, पदमपति, सुधेन्दु पटेल जैसे तमाम नवयुवकों ने पत्रकारिता में हाथ माँजे। इसका साप्तहिक विशेषांक दैनिक पत्र से ज्यादा लोकप्रिय हुआ। कुल 32 पेज का यह विशेषांक बिना किसी विज्ञापन के छपता था। इसलिए इसका पेट भरना हम सबों के लिए बड़ी चुनौती थी। हम सब यानि भैयाजी बनारसी, पं श्रीशंकर शुक्ल, अध्यात्म त्रिपाठी और मैं। कुछ साल के बाद मैं समाचार विभाग में चला गया। उन दिनों विदेशी न्यूज एजेंसी 'रायटर' और 'एपी' द्वारा टेलीप्रिंटर पर अंग्रेजी में टुकड़े-टुकड़े में समाचार आते थे, जिन्हें जोड़कर हिन्दी में अनुवाद करना और शीर्षक लगाना होता था। यह काम हमलोग मुख्यतः श्री दूधनाथ सिंह के नेतृत्व में करते थे। मेरी नियुक्ति काव्यमंचों पर मेरी लोकप्रियता के कारण हुई थी, जो 'आज' के सम्पादन और 'धर्मयुग 'जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशन और आकाशवाणी-दूरदर्शन के राष्ट्रीय कार्यक्रमों में काव्यपाठ के प्रसारण से कई गुना बढ़ गयी। दस साल बाद कुछ कारणों से मुझे 'आज' दैनिक की नौकरी और काशी छोड़कर कलकत्ता जाना पड़ा, जहाँ तीन वर्षों तक यूको बैंक के मुख्यालय में राजभाषा अधिकारी और फिर 14 वर्षों तक हिंदुस्तान कॉपर लि. मे वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी से मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) तक की शिखर-यात्रा की। इन 18 वर्षों में मेरी पहचान देश के जाने-माने राजभाषा अधिकारियों में हो गयी। कलकत्ता नगर की राजभाषा गतिविधियों का मैं केंद्र बन गया था। 1998 में ओएनजीसी के बहुत आग्रह पर आधे मन से देहरादून मात्र तीन वर्षों की प्रतिनियुक्ति पर आया था, मगर न ओएनजीसी ने मुझे छोड़ा और न मैंने ही। यहीं 2009 में रिटायर होने के बाद स्थायी रूप से सपरिवार रहने लगा। चूँकि मैं अपने गाँव 'देवधा' में बहुत कम रह पाया, इसलिए देहरादून वाले दोतल्ला मकान का नाम 'देवधा हाउस ' रख दिया।
अवनीश सिंह चौहान— अपने गाँव-घर-परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में बताएँ। घर-परिवार में आपको साहित्य और संस्कृति से सम्बंधित किस प्रकार का वातावरण मिला?
बुद्धिनाथ मिश्र— मेरा गाँव मैथिली संस्कृति में रचा-पगा गाँव रहा। मेरा परिवार संस्कृत विद्वानों का समादृत परिवार था। अंग्रेजी पढ़ने वाला पहला विद्यार्थी मैं ही था। वैसे, मेरे गाँव में तब तक संस्कृत में शास्त्री-आचार्य करने वाले को ही विद्वान माना जाता था, बीए-एमए वाले को नहीं। मेरे पिताजी ने अयोध्या में रहकर ज्योतिष का गहन अध्ययन किया था। अनेक विद्यालयों से अध्यापन के लिए उन्हें आमंत्रण मिला, मगर गाँव के जमींदार नहीं चाहते थे कि गाँव का विद्वान बाहर जाए। सो, एक दिन उन्होंने पिताजी से उनके सारे प्रमाणपत्र देखने के लिए माँगा और उन्हें कहीं छिपा दिया, जो फिर कभी लौटाया नहीं गया। हारकर पिताजी ने छोटी जोत की खेती, पौरोहित्य और ज्योतिष सम्बन्धी कार्यों में अपने को रमा दिया। पिताजी दो भाई थे। छोटे भाई निरक्षर थे। जीवन भर आर्थिक कष्ट झेलते रहे और समाज के दुष्ट लोगों के उकसाने पर पिताजी को परेशान करते रहे। वह वैमनस्य दोनों भाइयों में ही था। परिवार के अन्य लोगों में पूरा सौमनस्य और साहचर्य था। पिताजी गाँव के दूषित वातावरण से चिंतित थे। निर्धनता ब्राह्मणों की बपौती है। हमलोग आठ भाई-बहन थे, तीन भाई और पाँच बहनें। सबकी परवरिश, बहनों की शादी और हमारी पढाई उन्होंने कैसे की, यह हमारे लिए चमत्कार ही था। भाई साहब को संस्कृत पढ़ने के लिए उन्होंने काशी भेज दिया। दस वर्ष के होने पर मुझे भी भाई साहब के संग लगा दिया, माया-ममता छोड़कर। उन्होंने सभी सन्तानों को ऐसा संस्कार दिया कि हम सभी भाई-बहन आजतक एकसूत्र में बँधे है। पारिवारिक अनुशासन बिलकुल रामायण-कालीन। पिताजी का वात्सल्य तो सभी भाइयों पर बरसता था, लेकिन मुझमें उन्हें ज्यादा संभावना दिखती थी। मेरे लेख जब पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे तो गाँव भर के बबुआनों को दिखाकर जितना वे गर्वित होते थे, उतना शायद ही कोई पिता होता होगा।
मेरे परिवार में पांडित्य तो था, किन्तु कविता-कहानी की ओर कोई रुझान नहीं था। पिताजी सबेरे तीन बजे जाग जाते थे और प्रभाती के रूप में विद्यापति, तुलसी और सूर के पद गाते थे। 'हे गोविन्द राखु शरण, अब तो जीवन हारे', 'दुःख हरहु द्वारिकानाथ, शरण में तेरो', 'कखन हरब दुख मोर, हे भोलानाथ' जैसे पदों को गाते हुए भावावेश में उनका गला रुँध जाता था। मैं बचपन में उनके साथ ही दालान पर सोता था। इसलिए मेरे अवचेतन मन में वे पद बैठते गए।काशी जाकर वही संस्कार मुखर हुआ और 11-12 वर्ष की अवस्था में 'माता, मोको तव पद चावै' जैसे पद भाई साहब से छिपाकर कॉपी में लिखने लगा, जिनमें कुछ पद तो भाई साहब के दोस्त-मित्र गाने भी लगे थे। संस्कृत की विद्वन्मण्डली में व्याकरण, न्याय, वेद-वेदान्त जैसे विषयों की तुलना में साहित्य को हेय माना जाता था। इसलिए भाई साहब नहीं चाहते थे कि मैं अभी से 'रजनी-सजनी' में लग जाऊँ। इसलिए बाती तो जली, मगर दीवे में तेल नहीं था। काशी से रेवतीपुर आने के बाद मैं थोड़ा मुक्त हुआ, क्योंकि भाई साहब मुरैना में दिगंबर जैन महाविद्यालय में प्राचार्य बन गए थे। कुछ दिनों तक मैं उनके साथ भी रहा, मगर वहाँ जब मेरा मन नहीं लगा तब उन्होंने रेवतीपुर भेज दिया, जहाँ उनके मित्र प्राचार्य थे। उस पाठशाला में आचार्य तक पढाई होती थी। छात्रावास में रहनेवाले छात्रों के भोजन, लालटेन आदि की व्यवस्था निःशुल्क थी, इसलिए आसपास के गाँवों के अनेक छात्र एक ही कक्षा में तीन-तीन साल पड़े रहते थे। मैं पहला सिरफिरा छात्र था जो एक साल में ही दो कक्षाओं को लाँघ गया था।
प्राचार्य जी पंडिताऊ कविता भी लिखते थे। कुछ यों— 'परिरम्भण में परिचुम्बन, परिहास बीच आलिंगन।' मेरा स्वर और उच्चारण बहुत अच्छा था। इसलिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वे मुझसे अपनी कविता गवाते थे। मेरे मन में लहर उठती थी कि ऐसे मौके पर मैं अपनी कविता सुनाऊँ, मगर डर से कभी कह नहीं पाया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय मेरे मन में तरंग आया और एक कविता लिखी— 'आँखें लाल दिखाते क्यों?' उसे मैंने 'आज' दैनिक के 'बाल संसद' स्तम्भ में छपने के लिए भेज दिया। नाम अपना न देकर सहपाठी अवध नारायण सिंह का दिया, जो चुनाव के दिनों में प्रचार के लिए फ़िल्मी तर्ज पर कुछ गाना जोड़ लेते थे। मेरे नाम से छपने पर प्राचार्य जी की हीनताग्रंथि जाग्रत हो जाती, क्योंकि अबतक उनकी कविताएँ डायरी के पन्नों से अख़बार तक नहीं आयी थीं। वह कविता छपी और अवध नारायण की खटिया खड़ी हो गयीं। मैं कुंती की तरह उस प्रकाशित कविता को देखकर नयन-सुख तो पा रहा था, मगर आगे बढ़कर दावा नहीं कर सकता था। लेकिन कहते हैं न कि 'खैर खून खाँसी ख़ुशी.. . रहिमन दाबे ना दबे।' सो कनफुसकी से यह बात फ़ैल गयी कि वह कविता मेरी ही थी। यह खबर गाँव के लोगों को भी मिली। युद्ध का समाचार रेडियो से सुनने के लिए जिस दरवाजे पर मैं जाता था, वहाँ सम्मानित आसन मुझे तब मिलने लगा। इस प्रकार, पहली बाल कविता ने ही मुझे समाज में अग्रिम पंक्ति में ला दिया। मैं न केवल पाठशाला में प्रार्थना-गीत गाने लगा, अपितु सरस्वती पूजा के अवसर पर खेले जानेवाले नाटक 'राजा भरथरी ' में रानी पिंगला, 'दानवीर कर्ण' में कुंती, 'वनदेवी' में वनदेवी का रोल मुझे दिया जाने लगा। रेवतीपुर के पुराने लोग आज भी रस ले-लेकर उन नाटकों को याद करते हैं, जिनमें मैं नायिका बना करता था।
अवनीश सिंह चौहान— आपको सर्जना का संस्कार कहाँ से मिला? आपकी पहली रचना किस विधा में थी और यह कब और कहाँ प्रकाशित हुई?
बुद्धिनाथ मिश्र— रेवतीपुर की संस्कृत पाठशाला में मैं जिस कमरे में बेंच लगाकर सोता था, वह दरअसल पुस्तकालय था। उसमें श्रेष्ठ संस्कृत पुस्तकों के अलावा बड़ी संख्या में हिंदी साहित्य की क्लासिक पुस्तकें थीं। लाइब्रेरियन शिवदानी शर्मा जी वहाँ हिंदी के अध्यापक भी थे। वे बिहार के ही बाढ़ जिले के थे। मेरी पढ़ने की रूचि को देखकर वे शाम को आलमारियों की चाभी मुझे दे देते थे, ताकि अपनी पसंद की पुस्तकें निकालकर मैं पढ़ूँ। इस व्यवस्था ने मुझे हिंदी और संस्कृत साहित्य को पढ़ने का भरपूर मौका दिया। सभी छायावादी कवियों की पुस्तकें, दिनकर के काव्य, रामायण, महाभारत आदि मैं उसी दौरान पढ़ गया। वह इनपुट इतना विशाल था कि मेरे जीवन भर का पाथेय वहीँ मिल गया। तीन-चार वर्षों के जेस्टेशन पीरियड के बाद आउटपुट निकलने का समय वाराणसी में आया, जब मैं 1965 में डीएवी कॉलेज आकर बीए (आनर्स) में पढ़ने लगा। पहला लेख दैनिक 'आज' के रविवारी अंक में नवम्बर में निकला। शीर्षक था— 'मिथिला की टूटती परम्परा : श्यामा चकेवा।' गोदौलिया स्थित वाचनालय में अखबार में अपनी रचना और अपना नाम मोटे अक्षरों में छपा देखकर जो रोमांच हुआ था, वह अविस्मरणीय है। मेरा पहला गीत 'दूर दुनिया से नदी के तीर कोई गा रहा है' पटना की 'ज्योत्स्ना' पत्रिका में छपा था। पहली कहानी 'अभिशप्ता' थी, जो वैदिक युग की ऋषिका रोमशा पर केंद्रित थी। यह कहानी मेरी मुंहबोली बहन कृष्णा बनर्जी के नाम से 'आज' में छपी थी। वह मेरे पड़ोस में रहती थी और मुझसे दो साल सीनियर होने के कारण पढाई में मेरी बहुत सहायता करती थी। मैथिली में मेरा पहला लेख 'विशालकाय फल : कटहर' मैथिली की प्रमुख पत्रिका 'मिथिला मिहिर' में 1966 में छपा था।
मूलतः संस्कृत-अंग्रेजी का छात्र होने के कारण, काशी में मेरा संपर्क नगर के हिंदी साहित्यकारों से बहुत कम था। एक घटना के बाद डीएवी कॉलेज के प्रिंसिपल ने प्रार्थना में वैदिक मन्त्रों को सस्वर पढ़ने के लिए मुझे भी अपने साथ कर लिया। यह काफी प्रतिष्ठा-जनक बात थी। उसके बाद 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय कॉलेजों में एनसीसी अनिवार्य कर दी गयी थी, जिसमें मेरी रूचि को देखकर और मेरे स्वभाव को जांच-परख कर कमाण्डेंट ने मुझे 'सीक्यूएमएस' बना दिया, यानी पूरे स्टोर की चाभी और परेड में कैडेटों के नाश्ता-पानी का इंतजाम मेरे जिम्मे। यदि प्रमाणपत्र में मेरी उम्र एक साल कम न होती तो कॉलेज से निकलते ही मैं आर्मी में सेकेण्ड लेफ्टिनेंट बन गया होता। काशी और रेवतीपुर में कुछ दिनों तक पहलवानी भी की, जो मुझे बाद में रास नहीं आया। इन सभी अनुभवों ने मेरे लेखन को विशाल फलक दिया और उसकी धार पैनी की। कम शब्दों में चित्रात्मक भाषा में अपनी बात कहने का कौशल मुझे इसी दौर में मिला। उन दिनों मैं शेरो-शायरी भी खूब करने लगा था, जिसका लुत्फ़ सहपाठियों ने खूब उठाया। प्रसिद्ध पत्रकार राम बहादुर राय मेरे उसी कॉलेज के सहपाठी थे। एनसीसी कैडेट के रूप में मुझे संत विनोबा भावे का अंगरक्षक बनने का सौभाग्य मिला और गुरु गोलवलकर को सुनने का भी, जिनकी समय की पाबंदी ने मुझे चकित कर दिया था।
अवनीश सिंह चौहान— आपकी पहली कृति कब प्रकाशित हुई थी? उसके बाद आपकी अब तक कौन-कौन-सी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं?
बुद्धिनाथ मिश्र— लेखों और कहानियों के साथ गीत तो पत्र-पत्रिकाओं में 1966 से ही छपने लगे थे, मगर काव्यमंच पर मैं जुलाई 1969 में यानी एमए और शादी के तुरंत बाद पाँव रखा। लगा, जैसे काशी नगरी बहुत दिनों से मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। सबने हाथोंहाथ लिया और साल ख़त्म होते-होते मैं आकाशवाणी का प्रथम पंक्ति का कवि बन गया। उस समय इलाहबाद केंद्र ही था, जिसके प्रोड्यूसर, सुकवि नर्मदेश्वर उपाध्याय ने मुझे काशी में ही एक कार्यक्रम में सुना, तो 'स्वरबेला' कार्यक्रम में सव्याख्या काव्यपाठ के लिए बुला लिया। जनवरी 1972 में 'धर्मयुग' में 'जाल फेंक रे मछेरे' गीत छपने के बाद तो मैं उड़ने लगा। लेकिन, इन सबके बावजूद मेरा पहला गीत संग्रह— 'जाल फेंक रे मछेरे' 1983 में शंकर दयाल सिंह जी के सौजन्य से उनके पारिजात प्रकाशन, पटना से छपा। उन्होंने पता नहीं किस 'विद्वान' को प्रूफ संशोधन का भार सौंपा, जिन्होंने गलतियाँ छोड़ी ही नहीं, गलतियाँ कर भी दीं। उससे मन खिन्न हो गया। 2001 में दुष्यंत कुमार संग्रहालय, भोपाल ने मेरा सम्मान किया था और इस उपलक्ष्य में एक संग्रह— 'जाड़े में पहाड़ ' निकाला। 'शिखरिणी' जब 2005 में निकली और उसका लोकार्पण मास्को में हुआ, तब उसकी बड़ी चर्चा हुई। कुछ अति लोकप्रिय गीतों के एक जगह संकलित होने से और कुछ उसकी विस्तृत भूमिका के लिए। बहुत से विश्वविद्यालयों में गुणग्राही प्रोफेसरों ने उसकी फोटोकॉपी कर छात्रों में बांटी, यह दिखाने के लिए कि गद्य कैसे लिखा जाता है और उसमें विषय-वस्तु को कैसे भरा जाता है। भारतीय ज्ञानपीठ से 2013 में प्रकाशित 'ऋतुराज एक पल का' गीत संग्रह ने भी मुझे काफी यश दिलाया। पत्रकारिता तो कब की छूट गयी थी, मगर मेरे भीतर का पत्रकार पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भ लिखकर उस कमी को पूरा करता रहा। इसके अलावा यूको बैंक, हिंदुस्तान कॉपर और ओएनजीसी के राजभाषा विभाग की गृह पत्रिकाओं का संपादन का भार तो मेरे कंधे पर रहता ही था। दैनिक पत्र 'प्रभात वार्ता' (कलकत्ता) 'प्रभात खबर' (राँची) और दैनिक पूर्वोदय (गुवाहाटी) के अपने नियमित स्तम्भों से 56 आलेखों का संकलन— 'निरख सखी ये खंजन आये' (2017) साहित्यिक पत्रकारिता के व्यापक आयाम को देखने के लिए अवश्य पठनीय है। इस बीच मेरे दो मैथिली गीत संग्रह— 'क्यो नहि दै अछि आगि' (2017) और 'पुरना सतघरवा में बैसल' (2020) भी प्रकाशित होकर अपना स्थान बना चुके हैं। एकांकी संग्रह— 'लाउड स्पीकर', गीत संग्रह— 'उत्तरा फाल्गुनी', संस्मरणात्मक आलेख— 'अव्यय अतीत' और अन्य कई पुस्तकें अभी प्रकाशनाधीन हैं। मेरे व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 'नये-पुराने' पत्रिका का ई-अंक (कार्यकारी सं. डॉ अवनीश सिंह चौहान) 'रचनाकार' वेब पत्रिका पर और प्रकाश बुक डिपो, बरेली से एक महत्वपूर्ण पुस्तक— 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता '(सं. डॉ अवनीश सिंह चौहान) कुछ साल पहले छप चुकी है। इसके अलावा खण्डवा की पत्रिका— 'अक्षत' (सं. डॉ श्रीराम परिहार) और मुंबई की पत्रिका— 'अनुष्का' (सं. रास बिहारी पांडेय) में मुझपर केंद्रित विशेषांक निकले हैं, जिनमें देश भर के साहित्यकारों ने योगदान किया। कोरोना काल में मैंने 'फेसबुक' पर प्रतिदिन एक दिवंगत गीतकार पर लिखना शुरू किया, जिसे 111 संख्या तक पहुंचाकर छोड़ दिया। वह पुस्तक भी शीघ्र छपनेवाली है। इसके अलावा मेरे 40 गीतों को चुनकर उनका अंग्रेजी अनुवाद— 'द क्लाउड्स ग्रेजिंग ऑन द बुग्याल' शीर्षक से बीएचयू में अंग्रेजी की प्रोफेसर डॉ अनुराधा बनर्जी ने किया है। वह भी शीघ्र छप जाएगा।
अवनीश सिंह चौहान— आपने गद्य और पद्य दोनों में कार्य किया है। इन दोनों विधाओं में कार्य करने का आपका अनुभव कैसा रहा? वर्तमान में नवगीत के क्षेत्र में गद्य की स्थिति कैसी है?
बुद्धिनाथ मिश्र— मेरे लेखन में अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम गद्य ही रहा है। निबंध, कहानी, रिपोर्ताज, यहाँ तक कि 'क्यों और कैसे' धारावाहिक की पटकथा भी गद्य में ही हैं। छंदमुक्त कवियों की तरह मैंने गद्य-पद्य में घालमेल नहीं किया है। हर विषय अपनी विधा खुद चुन लेता है। गीत के भाव गीत में ही सही ढंग से अभिव्यक्त होंगे। मैंने बचपन से अपने समाज में गीत के प्रभाव को देखा है। इसलिए प्रारम्भ में ही संकल्प कर लिया था कि कविता लिखूंगा तो गीत के फॉर्म में ही। गीत अपेक्षाकृत कम मैंने लिखे हैं, लेकिन गीतकार के रूप में मेरी प्रसिद्धि ही ज्यादा है, शायद व्यापक काव्यमंच और विशाल संचार माध्यम मिल जाने के कारण। वैसे, मेरा जीवन बहुत व्यस्तता भरा रहा है। अभी कोरोना काल में भी मैं 14-4 घंटे काम करता हूँ। ऐसी परिस्थिति में खंडकाव्य या महाकाव्य रचने के बारे में सोचना भी दूर की कौड़ी है। कुछ छोटे-छोटे उपन्यास जरूर मन में हैं। तीन-चार उपन्यास चाक पर चढ़े हुए भी हैं। प्रकाशित लेखों का अम्बार लगा हुआ है। इन्हें पुस्तक रूप दे दिया जाए, तो हिंदी का हो या न हो, मेरे रचनाकार का कल्याण हो जाएगा। गीतकारों में गद्य लिखने की प्रवृत्ति बहुत कम रही। इसके कारण उनका पक्ष सामान्य जन तक ठीक से नहीं पहुँच पाया। जैसे मोती की रक्षा के लिए सीपी का होना महत्वपूर्ण है, वैसे ही गीत की हिफाजत के लिए गद्य का होना जरूरी है। बहुत-से गीतकार शपथ खाये बैठे हैं कि अगर लिखेंगे तो पद्य में ही, गद्य में नहीं। इससे अंततः गीत को ही नुकसान हुआ है।
कभी-कभी मुझे
सोशल मीडिया पर
कच्ची-पक्की कविताओं
का अम्बार देखकर
बड़ी निराशा होती
है। गुणवत्ता की
कसौटी से रहित
रचनाओं की आबादी
बेतहाशा बढ़ने से
साहित्य जगत में
अराजकता फ़ैल रही
है। एक-न-एक दिन
यह आबादी-विस्फोट
होना ही है।
किसे पढ़ें और
क्या पढ़ें, इसका
चयन-संकट पाठकों,
काव्यप्रेमियों, छात्रों और अध्यापकों
के सामने आएगा।
पुस्तकों का प्रकाशन
भी बेतहाशा बढ़
गया है। जिनके
पास साधन है
या रसूख है,
उनकी निम्न श्रेणी
की पुस्तकों का
अम्बार लगा हुआ
है। प्रकाशकों ने
अपने यहाँ नीर-क्षीर विवेकी सम्पादकों
को रखना छोड़
दिया है। लोग
पैसा देकर प्रकाशकों
से किताबें छपवा
रहे हैं। किसी
भी भाषा के
विकास के लिए
यह शुभ लक्षण
नहीं है।
अवनीश सिंह चौहान— अपने संपादन कार्यों और साहित्यिक यात्राओं के बारे में बताएँ।
बुद्धिनाथ मिश्र— संपादन का ककहरा मैंने 'आज' कार्यालय में जाकर ही सीखा। प्रूफ पढ़ना, अनुवाद करना, विस्तृत समाचार को संक्षिप्त करना, सामग्री से शीर्षक निकालना— ये सब मैंने पहली बार सीखा था वहाँ। मैं जब संपादन की दुनिया में आया था, तब हैंड कम्पोज का जमाना था। प्रूफ रीडर की कौन कहे, अनुभवी कम्पोजीटर तक हमारी त्रुटियों को सुधार देता था। यह जरूरी भी था, क्योंकि हमारी एक भूल अगले दिन अख़बार के लाखों पाठकों की नजर से गुजरेगी। अपनी भी आँखें इतनी ट्रेंड हो गईं कि नजर गलती पर ही पड़े। एक बार जब मैं समाचार विभाग में शिफ्ट इन्चार्ज था, अख़बार के एक पूरे पेज पर नये साल का कैलेंडर छपा था। शाम का संस्करण निकल चुका था। रात की शिफ्ट में जब मैं आया, तो कैलेण्डर पर मेरी नजर गयी। लगा कि कुछ गड़बड़ है। एक-एक तारीख को जब चेक करने लगा तो देखा कि 24 फरवरी दो बार छप गया है। तुरंत प्रेस को रोका। पूरे पेज को तोड़कर फिर से कम्पोज हुआ। तब जाकर अगले संस्करण छपे। कलकत्ता में अपने कार्यालय की गृह पत्रिकाओं के अलावा 'मंजरी 'देसकोस' आदि कई पत्रिकाओं के संपादन से परोक्ष रूप से जुड़ा रहा। बाद में नराकास की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का संपादन भी संभालना पड़ा था, जो कलकत्ता में 25 बरसों से अनवरत छप रही है।
जहाँ तक पुस्तकों के संपादन का प्रश्न है, इसकी शुरुआत कुमुदिनी खेतान जी की महत्वाकांक्षी योजना— 'स्वान्तः सुखाय' के सम्पादन से हुई। पहले उन्होंने उस एक हजार साल की कविता के विराट संकलन के लिए मुझसे गीत माँगे। बाद में उसकी पाण्डुलिपि को अंतिम रूप देने और कवियों से कॉपीराइट लेने में उन्हें मेरी भूमिका अपरिहार्य लगी और मैंने सारा योगदान मुस्तैदी से और निःशुल्क किया। सांसद डॉ चंद्रा पाण्डेय जी मेरे भाई समान एम एन पांडेय जी (प्राचार्य, हिंदी स्कूल) की पत्नी थीं और विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर थीं। उनके घर मेरा आना-जाना था। एक दिन उन्होंने बड़े संकोच से कागजों की चिन्दियों पर बेतरतीब लिखी अपनी कविताओं को दिखाया और पूछा कि देखिये, एक पत्रिका को भेजने लायक इनमें कोई कविता है? मैंने अपने सम्पादकीय अनुभव का लाभ उठाते हुए तत्काल उनमें से पाँच कविताएँ निकाल दीं। कुछ फिनिशिंग टच के बाद वे कविताएँ छपीं और काफी प्रशंसित भी हुईं। तब उन्होंने कहा कि मेरे एक कलीग ने इन्हें कूड़े में डाल देने की सलाह दी थी। अब आप एक संकलन लायक कविताएँ चुन दीजिए और उसकी भूमिका भी आप ही लिख दीजिए। उनका काव्य-संग्रह जब छपने को हुआ तबतक वे राज्यसभा की सदस्य बन गयी थीं। बड़ी-बड़ी हस्तियों ने उसकी भूमिका लिखने की पहल की, मगर चन्द्राजी ने अपना संकल्प नहीं तोडा। वह संकलन— 'उत्सव नहीं हैं ये शब्द' बड़ी शान से आर्ट पेपर पर छपा।
कलकत्ता में एक साहित्यप्रेमी मारवाड़ी थे श्याम सुन्दर झुनझुनवाला। उन्होंने एक संस्था बनायीं— 'मित्र मंदिर' जिसमें मुझे साहित्यिक कार्यों का मन्त्रदाता बनाया। इस संस्था ने अल्प साधनों से ही ऐसे बड़े-बड़े काम कर दिए कि कलकत्ता में ही बड़े-बड़े लोग दांतों तले ऊँगली दबाने लगे। इसकी वाङ्मय विकास निधि का अध्यक्ष मैं बनाया गया। कुछ नया काम करने के लिए चार लाख की पूँजी जमा हो गयी। इसी पूँजी से मित्र मंदिर और आर्यबुक डिपो ने मिलकर गीतकारों का संकलन निकालने का कार्य शुरू किया, जिसके अंतर्गत कैलाश गौतम जी का 'जोड़ा ताल', सोम ठाकुर जी का 'एक ऋचा पाटल को', माहेश्वर तिवारी जी का 'नदी का अकेलापन', रामचंद्र चंद्रभूषण जी का 'समय अब सहमत नहीं', उदय प्रताप सिंह जी का 'देखता कौन है' और बेकल उत्साही जी का 'धरती सदा सुहागन' प्रकाशित हुआ। सभी पुस्तकों के प्रारम्भ में मेरा सम्पादकीय रहता था। इनमें से कइयों का तो एकमात्र संकलन बनकर रह गया। इस प्रकार मैं संतुष्ट हूँ कि मैंने स्व पर केंद्रित न रहकर समग्र रूप से गीत के प्रकाशन को महत्त्व दिया, क्योंकि मेरी मान्यता है कि सबका कल्याण होने से ही मेरा भी कल्याण होगा। मैं अकेला अपना कल्याण चाहकर क्या करूँगा?
अवनीश सिंह चौहान— आपने अपने सरस कण्ठ से काव्य-मंचों पर सराहनीय उपस्थिति दर्ज करायी है। इन मंचों पर काव्य-पाठ करने के आपके अनुभव कैसे रहे हैं?
बुद्धिनाथ मिश्र— कवि सम्मेलन के मंच पर मैं एकबारगी और अचानक आया। गोदौलिया के पास जम्मू कोठी में एक कविगोष्ठी थी, जिसकी अध्यक्षता भैयाजी बनारसी करनेवाले थे। 'आज' के साहित्य संपादक के रूप में वे मुझे खूब छापते थे। लेकिन कभी उनसे भेंट नहीं हुई थी। उनसे मिलने के लोभ में मैं चला गया था। दुर्भाग्य से, वे नहीं आये। गोष्ठी में 6-7 नवोदित कवि थे। मैं चुपचाप उन्हें सुनता रहा। अचानक संचालक ने मेरा नाम पूछा और कविता पाठ का आग्रह कर दिया। मेरी जेब में नया-नया लिखा पावस गीत— 'नाच गुजरिया नाच' था, जिसे मैंने पूरे मन से सुना दिया। सधी हुई आवाज, अंग्रेजी छंद ऑनमेटोपोयिया की ध्वन्यात्मकता और बरसाती नदी की तेज धार-सी गीत की धुन। उसके एक सप्ताह के बाद मराठी समाज के गणेशोत्सव में कवि सम्मेलन था, जिसमे नगर के सभी श्रेष्ठ कवि आमंत्रित थे। मुझे सुनने के बाद आचार्य सीताराम चतुर्वेदी अपने अध्यक्षीय भाषण में देर तक मुझपर बोले। साथ ही आशंका भी जतायी कि 'अनजान' जी की तरह मैं भी बंबई भाग जाऊँगा। उन्होंने मुझसे वचन लिया कि मैं काशी छोड़कर बम्बई नहीं जाऊँगा। यही कारण था कि महावीर अधिकारी जी ने 'करेंट' हिंदी साप्ताहिक के संपादन के लिए और भरत व्यास जी ने फिल्मों में गीत लिखने के लिए बहुत आग्रह किया, मगर मैंने बहुत विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
पहले कवि सम्मेलनों में, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार (संयुक्त) में कवियों की संख्या 30-40 तक होती थी। एक दौर में ही 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' हो जाता था। नेपाली जी, बच्चन जी, नीरज जी सबके बाद में आते थे और श्रोताओं की फरमाइश पर देर तक कविता-पाठ करते थे। मैं सूची में कनिष्ठतम कवि होता था। इसलिए प्रारम्भ में ही कविता पढ़कर मंच के पीछे सो जाता था। सुना है कि शुरू के वर्षों में कवि-शायर अपना टिकट कटाकर कविता पढ़ने आते थे। जब स्कूल-कॉलेजों में साहित्य परिषद् गठित होने लगी, तब छात्रों से एक-एक रुपया चंदा लेकर साल में एक बार कवि सम्मेलन कराने लगी। कवियों को 'न्यून से किंचित अल्प' विदाई मिलती थी। सारे बड़े-बड़े कवि इसी आर्थिक व्यवस्था में आते थे। उनका उद्देश्य कविता का धंधा करना नहीं, नयी पीढ़ी में काव्य-संस्कार का बीजारोपण करना और समाज के काव्यप्रेमियों का उत्साह-वर्धन करना था। कवियों और शायरों को समान आदर के साथ सुना जाता था। मुस्लिम आबादी में भी हिंदी कवियों को पूरे अदब से सुना जाता था। इसलिए कवि-सम्मेलन-मुशायरा एक साथ होता था। बाद में चलकर दो-तीन अनिष्टकारी परिवर्तन हुए— हिंदी पाठ्य-पुस्तकों में वामपंथी कवियों के लंगड़गद्य से संत्रस्त छात्र-अध्यापक कविता के रस से अपरिचित रहने लगे, जिससे मनोरंजनकांक्षी श्रोताओं का वर्चस्व बढ़ा और इसके साथ ही हास्यकवियों की संख्या मंचों पर बढ़ने लगी। उनकी पूछ बढ़ी तो उनका लिफाफा और रोब-दाब भी बढ़ा। कवियों की 'विदाई' को 'पारिश्रमिक राशि' में बदलने वाले गीतकार बच्चन जी के गोत्र के कवि उपेक्षित होने लगे। हास्य रस यदि जीवन का स्थायी भाव होता तो आचार्यों ने शृंगार को रसराज नहीं बनाया होता। इसलिए हास्य की चटनी के साथ गीत या आज की कविताओं को परोसने का प्रोफेशन बढ़ा और आज यह पेशा चरम पर है। पहले संचालक नामक प्राणी भी नहीं होता था। अध्यक्ष ही सञ्चालन भी करता था। मुझे ग्लानि तब होती है, जब सरकारी कार्यालयों के राजभाषा कार्यक्रमों में अपढ़-कुपढ़ बड़े साहब और उनकी मेम साहब की ख़ुशी के लिए कवि सम्मेलन के बजट से लाफ्टर चैनल के कलाकारों को बुलाया जाता है। दूसरा परिवर्तन और भी घातक था। वह यह कि कवियों के श्रोता तो पूर्ववत रहे, मगर शायरों के श्रोता ज्यादा लामबंद और ज्यादा असहिष्णु हो गए। जब ऐसे जेहादी श्रोताओं ने कवियों को हूटकर मंच पर अपमानित करना शुरू किया, तब कवि सम्मेलन और मुशायरा अलग हो गए। हालाँकि, कवि सम्मेलनों में शायरों को बुलाकर सुनने की उदारता कायम रही, लेकिन मुशायरा पूरा मुस्लिम-परस्त बन गया। इस नए परिवर्तन ने इस मिथक को तोड़ दिया कि उर्दू किसी खास मजहब की भाषा नहीं है।
मेरा स्वर अच्छा
था, शब्द भी
अच्छे थे, काशी
की साहित्यिक-सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि थी, जीवन
को सहजता से
जीने का पारिवारिक संस्कार
था, कविता से
अधिक न कमाने
का संयम था,
वरिष्ठ कवियों के प्रति
श्रद्धाभाव और उनका
अजस्र स्नेह प्राप्त
करने का सम्बल
था। इसलिए नौकरी
की निष्ठापूर्ण व्यस्तता
के बावजूद कवि
सम्मेलन मुझे जन-जन तक
पहुँचने का सर्वथा
उपयुक्त माध्यम लगा। आकाशवाणी
ने देश के
कोने-कोने तक
पहुँचाया। जहाँ नहीं
गया, वहाँ भी
मेरा काव्यपाठ गया।
लोगों ने भरपूर
स्नेह, सम्मान और आत्मीयता
दी। लगा कि
पूरा देश मेरा
परिवार है। किसी
भी शहर में
अपने घर का
सुख पा सकता
हूँ। यही स्थिति
बाद में विदेश
यात्राओं में हुई।
मुझसे पहले किसी
न किसी माध्यम
से मेरे गीत
काव्य-प्रेमियों तक
पहुँचे हुए थे।
बल्कि किसी-किसी
के तो कंठहार
बने हुए थे।
खासकर, मछेरे वाले गीत
की मांग हर
जगह रही। कुल
14-15 देश गया। सभी
जगह इतनी आत्मीयता
मिली कि लगा
ही नहीं कि
वीजा पर आया
हूँ। कवि सम्मेलन
का मंच साधक
कवियों के लिए
कैश क्रॉप भी
है और जनसंपर्क
का बेहतरीन साधन
भी। इसे कवियों
की शुद्ध नस्ल
के लिए बचाकर
रखना चाहिए।
अवनीश सिंह चौहान— हिंदी के साथ आपने मैथिली भाषा में भी साहित्य-सृजन किया। मैथिली साहित्य की वर्तमान में क्या स्थिति है और इसमें कौन-कौन से रचनाकार महत्वपूर्ण कार्य करते रहे हैं?
बुद्धिनाथ मिश्र— मेरा यह सौभाग्य रहा कि बचपन में ही मैथिली और भोजपुरी को मातृभाषा की तरह बोलने लगा। इसके अलावा सूरदास ने ब्रजभाषा और तुलसीदास ने अवधी अच्छी तरह सिखा दी। बनारस प्रवास में जिस काली मंदिर में रहता था, वह बंगालियों का मोहल्ला था। साहचर्य ने बांग्ला भी सिखा दिया। इसका बड़ा लाभ बाद में कलकत्ता प्रवास में मिला, जहाँ मुझे लगा ही नहीं कि मैं किसी अन्य प्रदेश में आ गया हूँ। हालाँकि बंगाली-हिंदुस्तानी का फर्क व्यवहार में होता था, मगर उसमें जहर नहीं था।
मैथिली में लिखना मैंने 1966 से ही शुरू कर दिया था। 'मिथिला मिहिर' जैसी शीर्ष पत्रिका, चेतना समिति, पटना का राष्ट्रीय मंच, सुधांशु शेखर चौधरी जी, हरिमोहन झा जी, यात्री जी (नागार्जुन), आरसी प्रसाद सिंह जी, सुभद्र झा जी, मायानन्द मिश्र जी, मार्कण्डेय प्रवासी जी, मधुप जी, किरण जी, गंगेश गुंजन जी, भीमनाथ झा जी जैसे महारथियों ने बहुत स्नेह और सहयोग दिया। प्रवासी जी के साथ मेरी मैत्री तो जगजाहिर है। नागार्जुन जी मेरे रिश्तेदार थे। बनारस और कलकत्ता में वे महीनों मेरे घर रहते थे। कवि मित्रों के बहुत उकसाने पर ही मैं अपने मैथिली गीतों के संकलन में प्रवृत्त हुआ। उससे पहले बनारस में 1979 में मैथिली संस्कार गीतों के दो ईपी रेकॉर्ड बन चुके थे। मैथिली में अबतक मेरे दो गीत संग्रह— 'क्यो नहि दै अछि आगि' और 'पुरना सतघरवा में बैसल' छपे हैं। प्रकाशन व्यवस्था ठीक न होने के कारण कथा संग्रह और निबंध संग्रह अभी तक प्रकाश में नहीं आये हैं। मैथिली में मेरा एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ— 'कविता की वाचिक परंपरा' पर वैयक्तिक निबंधों का संग्रह है। वह शीघ्र प्रकाश्य है। किसी भी भारतीय भाषा में वैसी पुस्तक नहीं है।
इस समय उषाकिरण खान, वीरेंद्र मल्लिक, उदयचंद्र झा विनोद, शांति सुमन, मंत्रेश्वर झा, महेंद्र मलंगिया, राम भरोस कापड़ि, देवशंकर नवीन, प्रदीप बिहारी, विभूति आनंद, अशोक अविचल, सियाराम झा सरस, तारानंद वियोगी, श्याम दरिहरे जैसे कई नाम हैं जो मैथिली साहित्य को यथाशक्ति संवार रहे हैं। और भी बहुत-से नाम हैं, जो अच्छा लिख रहे हैं। मैथिल समाज आर्थिक दृष्टि से विपन्न समाज है। बिहार सरकार मैथिली को सौतेली माँ की दृष्टि से देखती है। इसलिए मैथिली के साहित्यकार शुद्ध रूप से अपने लेखन के बल पर पद्मश्री आजतक नहीं पाए हैं। पद्मश्री केवल मधुबनी पेंटिंग के चित्रकारों को मिलता रहा है, जिसका श्रेय प्रतापी राजनेता ललित बाबू को दिया जाना चाहिए। मैथिली में पत्र-पत्रिकाओं का भी घोर अभाव है। साहित्यकार घर के पैसे से किताबें छपाता है और मैथिली के ब्रह्म बाबाओं के डीह पर सश्रद्ध नैवेद्य चढ़ा आता है। ऐसी परिस्थिति में भी अगर नयी पीढ़ी मैथिली में सृजन के लिए कटिबद्ध है, तो इसे व्यक्तिगत संस्कार ही कहेंगे।
अवनीश
सिंह
चौहान— नवगीत
का युग कब
और कैसे प्रारम्भ
हुआ? इसकी स्थापना
में 'गीतांगनी'(1958) 'बासंती'
(1961), 'कविता-64' (1964) आदि की
क्या भूमिका है?
बुद्धिनाथ मिश्र— मैं हिंदी डिसिप्लिन का छात्र नहीं रहा। हिंदी साहित्य से जो भी परिचय हुआ, वह रेवतीपुर पाठशाला में पुस्तकालय की किताबों के माध्यम से। काशी मेँ 1965 से उच्च शिक्षा ग्रहण करता रहा, लेकिन मेरा विषय-क्षेत्र संस्कृत, अंग्रेजी और दर्शन रहा। जब मैं 1969 में हिंदी मंच पर आया, तबतक 'गीतांगिनी' और 'वासंती' का दौर समाप्त हो चुका था। इसलिए सुनी-सुनाई बातों को दुहराकर वक्त जाया नहीं करूँगा। हाँ, जब मैंने काशी में नवगीत का पहला परिचय डॉ शंभुनाथ सिंह जी से पाया, तब इसके रोल मॉडल ठाकुर प्रसाद सिंह, वीरेंद्र मिश्र, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, चंद्रदेव सिंह, उमाकांत मालवीय, माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, रमेश रंजक, शांति सुमन, अनूप अशेष, गुलाब सिंह आदि थे। कैलाश गौतम, दिनेश सिंह, डॉ सुरेश आदि बाद में जुड़े। अखिलेश सिंह तो मेरे साथ रहते-रहते नवगीत से जुड़े। इन सबसे अलग सूर्यभानु गुप्त थे जो नवगीत और गजल दोनों को एक साथ साध रहे थे और दोनों में अपनी छाप छोड़ रहे थे। 'वासंती' के संपादक महेंद्र शंकर जी गाँव से बनारस आते तो मेरे घर ही ठहरते थे। उनसे वासंती के दिनों की बातें होती रहती थीं। 'गीतांगिनी' के कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह की बहन मेरे गाँव के एक जमींदार परिवार में ब्याही थी। उन्हें हमलोग 'दुलहिनजी' कहते थे। राजेंद्र जी की 'गीतांगिनी' और 'आओ खुली बयार' मुझे दुलहिनजी ने पढ़ने को दी थी। तब मैं बीए ऑनर्स में था। सिंह जी की कृत्रिम हिंदी मुझे रास नहीं आयी थी। 'कविता 64' के सम्पादक ओम प्रभाकर जी से कभी कभार बनारस के ही आयोजनों में भेंट हुई थी। वे सभा-वीर थे। नवगीत के विरोधियों को पटक-पटक कर धूल चटाना जानते थे। इसलिए स्वभाव से मुँहदुब्बर नवगीतकारों के लिए सभाओं में 'एक भरोसो एक बल' भी थे। बस, 1970 से पहले के नवगीत की दुनिया से मेरा 'परिचय इतना, इतिहास यही' है।
अवनीश सिंह चौहान— कविता और गीत के बीच क्या आपको किसी प्रकार की कोई विभाजक रेखा दिखाई पड़ती है? यदि हाँ, तो यह रेखा नवगीत को किस प्रकार से स्पर्श करती है या किस प्रकार से अलग दिखाई पड़ती है? यदि नहीं, तो दोनों अलग-अलग विधाओं के रूप में क्यों विद्यमान हैं?
बुद्धिनाथ मिश्र— कविता यदि हिमालय पर्वत-शृंखला है तो गीत उसका श्रेष्ठतम कैलाश शिखर। कविता महा अरण्य है, जिसमें गीत चंदन वन है। अरण्य में सभी प्रकार के लता-वृक्ष होते हैं। कुछ ऐसे वृक्ष भी पाए जाते हैं जो पास जाने पर निगल जाते हैं। कविता एक सामान्य संज्ञा है, जिसका पारम्परिक अर्थ पद्य है। तो, सुविधा के लिए हम पूरे सर्जनात्मक साहित्य को गद्य और पद्य में बाँट सकते हैं। पद्य में गीत-नवगीत के अलावा प्रगीत (लम्बे-लम्बे गीत), सवैया, दोहा, चौपाई, बरवै आदि सभी प्रकार के छंदोबद्ध काव्य आ जाते हैं। जो छंदमुक्त हैं, उनको कविता की श्रेणी में रखना समीचीन नहीं होगा। डॉ शम्भुनाथ जी ने उन्हें 'नाट्य संवाद' कहा है, जो बहुत हद तक सही है। यदि गौर से सुनें तो उनका पाठ नाटक के संवाद जैसा ही होता है। इसलिए इस दिशा में भी धारा 370 हटाने की जरूरत है। वक्त आने पर आनेवाली सशक्त पीढ़ियाँ यह काम कर ही डालेंगी। छंदमुक्त कविता हिंदी कविता की वह बाँझ डाल है, जो दूसरी जीवित डालों की जीवन-ऊर्जा सोख रही है। जैसे बड़े वृक्ष पर पनपी बाँझ डाल सारे पेड़ को सुखा देती है, उसी तरह छंदहीन, रसविहीन, वैचारिक 'नयी कविता' सुरसा की भांति पूरी कविता को निगल जाएगी। गजल के बंधे-बँधाये सांचों के विपरीत गीत विधा में सैकड़ों छंद हैं। जैसे शास्त्रीय संगीत के प्रत्येक बार के गायन में मौलिकता होती है, यानी हर गायन प्रस्तुति की दृष्टि से नया होता है; उसी तरह गीत का छंद-विधान भी स्वतन्त्र है। हर गीत का साँचा अपनी अलग पहचान लिये होता है। इसलिए गीत रचना में विविधता होती है। इसके अपने सांचे तो हैं ही, कवि अपना निजी साँचा भी बना सकता है। गीतकार से यह अपेक्षा तो नहीं की जा सकती कि हर बार वह अपने छंद का साँचा खुद बनाए, लेकिन अगर वह करता है, तो उसे नवोत्कर्ष माना जाता है। प्रारम्भ में नवगीत में भी नए-नए छंदों को लाने की जद्दोजहद थी, मगर अब नवगीतकार फॉर्म से ज्यादा कॉन्टेंट पर ध्यान देते हैं। गजल में छंद का साँचा जैसे सीमित है, वैसे ही नवगीत के छंद का साँचा भी सीमित हो गया है।
छंदमुक्त कविता की अपरिहार्यता यह कहकर सिद्ध की गयी थी कि आधुनिक जीवन की जटिलताओं को छंदों के साँचे में समाना असंभव है। नवगीत ने उन सभी जटिलताओं को अपने सांचे में ढालकर दिखा दिया। छंदोबद्ध होने के कारण नवगीत की यथार्थपरक अभिव्यक्तियाँ समाज के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं। छंदमुक्त की जगह नवगीत की उद्धरणीयता और स्मरणीयता बहुत अधिक है। छंदमुक्त कविता को जब स्वयं कवि याद नहीं रख सकता, तब दूसरे लोग कैसे याद रखेंगे? उसपर तुर्रा यह कि उसे सदियाँ याद करें, ऐसा ख़याली पुलाव उसका कवि पकाता है। संक्षेप में हम यों कहें कि कविता की पहली शर्त उसकी छंदोबद्धता है। उसके बाद उसका छंद-विधान, उसकी काव्यभाषा, उसका बिम्ब एवं प्रतीक-विधान, उसका कथ्य आदि है। नवगीत में अपनी बात को कहना जैसे 'जिन' को बोतल में समाना है। कम से कम शब्दों में आपको अपनी पूरी बात कहनी होती है, ताकि केंद्रीय विषय का सम्यक प्रतिपादन हो। इसलिए बिम्बों और प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। बिम्ब माने चित्र। जैसे एक चित्र हजार शब्दों को अपने में समेट लेता है, उसी प्रकार एक बिम्ब दो-चार पन्नों में आने वाले शब्दों को समेट लेता है। नवगीत के शब्द भी अधिकतर समकालीन जीवन से लिए जाते हैं, जिससे उनकी प्रासंगिकता बढ़ जाती है। नवगीत विधा आज नयी पीढ़ी के लिए क्रेज बन चुकी है। छंदमुक्त कविता में वे रचना से ज्यादा रचनाकार के महत्त्व को पाते हैं। अफसर और प्रोफ़ेसर ही अपने रसूख के बलपर छंदोबद्ध कविता के दुनिया के महाबली हैं। चूँकि वहाँ श्रेष्ठता को नापने का कोई पैमाना नहीं है, इसलिए महाबलियों की कविता श्रेष्ठ और अल्पप्राण की कविता घटिया मान ली जाती है। अल्पप्राणों में भी वही ऊँचे दिख जाते हैं, जिन्हें कोई महाबली अपने कंधे पर बैठा लेता है। नवगीत में कविता की श्रेष्ठता मापने के प्रतिमान हैं। इसलिए, यहाँ फिलहाल कोई अराजकता नहीं है।
अवनीश सिंह चौहान— छठवें एवं सातवें दशक में किन-किन रचनाकारों/ काव्य-संकलनों/ समवेत संकलनों (विशेषकर 'पाँच जोड़ बाँसुरी') ने नवगीत को किस प्रकार से गति प्रदान की? इनसे डॉ शम्भुनाथ सिंह को अपने सम्पादित ग्रंथों— 'नवगीत दशक' (एक, दो, तीन) के प्रकाशन-प्रसारण आदि में किस प्रकार का सहयोग (सपोर्ट)/ आधार (ग्राउंड) प्राप्त हुआ?
बुद्धिनाथ मिश्र— नवगीत विधा का पहला समादृत संकलन— 'पाँच जोड़ बाँसुरी' है। डॉ चंद्रदेव सिंह द्वारा सम्पादित यह संकलन भारतीय ज्ञानपीठ से छपा था, इसलिए सर्वत्र इसको सम्मान मिला। इससे पूर्व राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपनी 'गीतांगिनी' को प्रथम नवगीत संग्रह होने का दावा किया था, मगर नवगीत का खाका तबतक उनके मन में नहीं बैठ पाया था। यह कमी कहीं-कहीं 'पाँच जोड़ बाँसुरी' में भी दिखती है। डॉ शम्भुनाथ सिंह के कुछ पूर्वाग्रहों को छोड़ दें तो 'नवगीत दशक' आधुनिक हिंदी कविता का बेहतरीन संकलन है। शृंखला के तीनों खण्डों में विस्तृत सम्पादकीय नवगीत के दिशा-निर्देश में बहुत सहायक है। वैसे, संपादक की भी अपनी सीमा थी, जिसके कारण नवगीत के अन्य सकारात्मक रूप समाहित नहीं हो पाए। नवगीत केवल जीवन के कटु यथार्थ को ही अभिव्यक्त नहीं करता, उसके मधु यथार्थ को भी स्वर और शब्द देता है। अज्ञेय जी के 'सप्तक' की त्रासदी यह है कि उसमें उन्होंने ऐसे लोगों को भी शामिल कर लिया था, जो कवि ही नहीं थे। जैसे प्रभाकर माचवे को लीजिए। वे साहित्य अकादमी के प्रथम सचिव थे और बहुज्ञ थे। कवि वे कहीं से नहीं थे। उन जैसे अनेक व्यक्तियों को कवि बनाना और उस समय के बड़े कवियों को छोड़ देना एक प्रकार से साहित्यिक बेईमानी थी। शंभुनाथ जी ने भी वीरेंद्र मिश्र, रमेश रंजक जैसे नवगीतकारों को शामिल न कर दशक-शृंखला को कमजोर ही किया; लेकिन उन्होंने किसी अयोग्य कवि को समाहित नहीं किया। इस दशक-शृंखला ने हिंदी कविता के इतिहास में युगांतरकारी परिवर्तन तो कर ही दिया। इसको आधार बनाकर न जाने कितने शोध-प्रबंध नवगीत पर लिखे गये, कितने विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम बने, काव्य समीक्षा की नयी पुस्तकें आयीं और कितने समवेत नवगीत संकलन अस्तित्व में आये। अज्ञेय के सप्तक को जैसे तमाम कमियों के बावजूद, झुठलाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार शम्भुनाथ जी के 'दशक' से अपरिचित व्यक्ति भी हिंदी कविता की बस्ती में अपढ़-गँवार ही माना जाएगा। शिक्षा जगत में खास विचारधारा के लोगों के वर्चस्व के कारण भारतीय काव्य का मूल अविरल प्रवाह आज भी बाधित है। वह दिन कब आएगा, जब हिंदी कविता के छात्र मूल काव्यधारा में अवगाहन कर सकेंगे!
अवनीश सिंह चौहान— आठवें और नौवें दशक में नवगीत के समृद्ध होने के क्या कारण थे? इन दशकों में किन-किन रचनाकारों ने किस प्रकार से कथ्य को निरूपित किया एवं किस प्रकार के प्रयोग भाषा-शैली में किये?
बुद्धिनाथ मिश्र— इस प्रश्न का उत्तर देने में मैं अपने को असहाय और अयोग्य पाता हूँ। मुझे भरोसा है कि अन्य कवि-मित्र समीक्षा के रंग वाले इस प्रश्न का सम्यक उत्तर दे सकेंगे।
अवनीश सिंह चौहान— बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में डॉ धर्मवीर भारती द्वारा सम्पादित 'धर्मयुग', वीरेंद्र मिश्र द्वारा सम्पादित 'सांध्यमित्रा', दिनेश सिंह द्वारा सम्पादित 'नये-पुराने' के छः अंक और वीरेन्द्र आस्तिक द्वारा सम्पादित 'धार पर हम' का नवगीत के उत्थान में किस प्रकार का योगदान है? इस दशक की अन्य कौन-कौन-सी उपलब्धियाँ हैं?
बुद्धिनाथ मिश्र— कोई भी विधा किसी एक के कंधे पर चढ़कर दूर तक नहीं जा सकती। यह एक प्रकार का नया सेतुबंध था, जिसको बनाने में जिससे जो बन पड़ा, पूरे मन से किया। कानपुर गीतकारों का शहर रहा है। वे गीतकार अपने ढंग से गीत-नवगीत को परिभाषित करते थे और उसको जीते थे। कानपुर से ही गीतीतिहास पर एक उल्लेखनीय पुस्तक आयी थी, जिसमें कानपुर के गीत-कवियों को केंद्र में रखकर बड़ा काम किया गया था। इसी शहर से वीरेंद्र आस्तिक जी का 'धार पर हम' संकलन, जिसमें डॉ रवीन्द्र भ्रमर, चन्द्रसेन विराट, सूर्यभानु गुप्त, सत्यनारायण, कुँवर वेचैन, राधेश्याम शुक्ल, मुकुट सक्सेना, बुद्धिनाथ मिश्र आदि को शामिल किया गया, विशेष चर्चित हुआ। चर्चा का एक कारण यह भी रहा कि इस संकलन को बड़ौदा विश्वविद्यालय के एम.ए. द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में निर्धारित कर लिया गया था।
दिनेश सिंह जी की पत्रिका— 'नये-पुराने' पूरी तरह नवगीत पर केंद्रित थी। उसके सारगर्भित सम्पादकीय नवगीत की अवधारणा को स्पष्ट करने में बहुत सहायक हुए। इसी प्रकार वीरेंद्र मिश्र जी की 'सांध्यमित्रा' पत्रिका भी अनियमित होने के बावजूद नवगीत के पंखों को नया आकाश देने में सहायक सिद्ध हुई। डॉ धर्मवीर भारती ने 'धर्मयुग' में डॉ विश्वनाथ प्रसाद का नवगीत पर दो अंकों में लेख छापकर और तमाम समकालीन कवियों के नवगीतों को प्रमुखता से छापकर हिंदी जगत में नवगीत के लिए ठोस पृष्ठभूमि तैयार की थी। नचिकेता की नवगीत-केंद्रित पत्रिका 'अंतराल' ने भी रचनाकारों के बीच नवगीत का वातावरण बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। दुर्भाग्यवश दिनेश जी की लम्बी अस्वस्थता से 'नये-पुराने' पत्रिका की इस ऐतिहासिक यात्रा में व्यवधान आ गया। इस दौरान डॉ अवनीश सिंह चौहान ने दिनेश जी को दिए गए अपने वचन को पूरा करने के लिए इस पत्रिका के दो अंकों ('कैलाश गौतम स्मृति अंक', जुलाई 2007 एवं 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता', मार्च 2011, ई-अंक) के संपादन का भार उठाया, किन्तु जुलाई 2012 में दिनेश सिंह जी के असामयिक निधन से यह महत्वपूर्ण पत्रिका भी बंद हो गयी। जो भी हो, इसका प्रत्येक अंक सुविचारित और सुसम्पादित निकला। एक बार आगरा के एक वरिष्ठ कवि ने मेरे बारे में कह दिया कि बुद्धिनाथ अब पूरी तरह अफसरी में लिप्त हो गए हैं। अब गीत नहीं लिखते। उसी बैठक में कैलाश गौतम थे। उन्होंने अपने झोले से 'नये-पुराने' का ताजा अंक निकालकर कहा कि यह आप कैसे कहते हैं? अभी-अभी बुद्धिनाथ के पांच गीत एक साथ 'नये-पुराने' में आये हैं। इस पर वादी कवि निरुत्तर हो गए। तो यह था 'नये-पुराने' में छपने का मतलब।
नवगीत के बहुत-से कवि आज भी हमारी नज़रों से ओझल हैं। उन्हें एक मंच पर लाना बड़ा काम है, जो कोरोना महामारी के पूरी तरह चले जाने के बाद ही संभव है। समवेत संकलनों के क्रम में हमें एक हजार साल की हिंदी कविता के विराट संकलन— 'स्वान्तः सुखाय' (संपादक : कुमुदिनी खेतान, कलकत्ता) को नहीं भूलना चाहिए, जिसमें पहली बार हिंदी के आधुनिक कवियों में शंभुनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, चंद्रदेव सिंह, उमाकांत मालवीय, सोम ठाकुर, माहेश्वर तिवारी, कैलाश गौतम, विनोद निगम, दिनेश सिंह, बुद्धिनाथ मिश्र आदि को शामिल किया गया। यह मुक्तछंद कवियों और नवगीतकारों के बीच लम्बे समय से पड़ी मेड़बंदी को तोड़ने का पहला सफल प्रयास था। इसी की अगली कड़ी के रूप में बनारस से श्री हीरालाल मिश्र 'मधुकर' ने 'नयी सदी के स्वर' विराट संकलन निकाला और अभी वे इसी प्रकार का नया समवेत संकलन निकाल रहे हैं, जो बारह सौ से अधिक पृष्ठों का है।
अवनीश सिंह चौहान— यद्यपि साहित्य का विकास दशकों के हिसाब से नहीं होता है, फिर भी इक्कीसवीं सदी के प्रथम और द्वितीय दशक की क्या विशेषताएँ हैं? इन दो दशकों में प्रमुख रूप से कौन-कौन से समवेत संकलन प्रकाशित हुए और किन-किन रचनाकारों ने विशेष योगदान दिया?
बुद्धिनाथ मिश्र— आपने सही कहा कि साहित्य का विकास दशकों के अनुसार नहीं होता है। विश्व स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर घट रही राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं और भाषा के अंदर आने वाली संक्रांतियों का गहरा प्रभाव हिंदी काव्य-सृजन पर भी पड़ा, जिसे छंदमुक्त कवियों ने शाब्दिक विलासिता के साथ और नवगीतकारों ने गहरी संवेदना के साथ अभिव्यक्त किया। 'दशक' के प्रकाशन के बाद जो माहौल नवगीत के पक्ष में बना, उसमें तमाम लोग नवगीत लिखने लगे। यहाँ तक कि जो शुद्ध पारम्परिक गीत लिख रहे थे, वे भी अपने गीत का शीर्षक 'नवगीत' देना पसंद करते थे। यह इस विधा की व्यापक जनप्रियता का प्रमाण है। पिछले दो दशकों में 50 से अधिक संग्रह आये, जिनमें गीत भी थे और नवगीत भी। मेरा संग्रह— 'शिखरिणी' 2005 में आया, जिसमें गीत-नवगीत दोनों हैं। उसकी विस्तृत भूमिका में नवगीतकारो का पक्ष रखने और यह जताने का प्रयास है कि गीतकार भी अपने समय की दीन-दुनिया पर नजर रखता है। उसे विरह-वेदना से पीड़ित, भावुकता में आकंठ डूबा व्यक्ति न समझा जाए। एक समवेत संग्रह— 'यात्रा में साथ-साथ ' भी आया था, जिसकी चर्चा कुछ कम हुई। पिछले दशक में मधुकर गौड़ (मुंबई) ने 'गीत समान्तर' की शृंखला निकालकर तहलका मचा दिया था। कानपुर से वीरेंद्र आस्तिक जी ने 'धार पर हम- दो' निकालकर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पटना से नचिकेता जी ने 'समकालीन गीतकोश' सम्पादित कर और उसकी विस्तृत भूमिका लिखकर बड़ा काम किया। हालाँकि उनके कुछ विचार विवादास्पद रहे, मगर नवगीत के प्रति उनकी निष्ठां पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। मजफ्फरपुर से डॉ रणजीत पटेल का समवेत संकलन— 'सहयात्री समय के' सुरुचिपूर्ण और रमणीय ग्रन्थ है। इसमें बिहार के अनेक गीत-कवि पहली बार राष्ट्रीय मंच पर एकत्र हुए हैं। राधेश्याम बंधु ने भी 'नवगीत के प्रतिमान' निकालकर अपने को स्थापित करने की जी-तोड़ कोशिश की। वे कितने सफल हुए, कह नहीं सकता। इस दौर का अंतिम और सबसे जोरदार समवेत संकलन डॉ ओम प्रकाश सिंह का 'नयी सदी के नवगीत' है। इसके पाँच खण्डों में कुल 75 नवगीतकारों को समेटा गया है, जो एक कीर्तिमान है। इस पर विस्तार से चर्चा होना ही चाहिए। डॉ सिंह के सम्पादन में ही केंद्रीय साहित्य अकादमी से 100 नवगीतकारों का समवेत संकलन शीघ्र आ रहा है। 2001 में साहित्य अकादमी ने अपनी गीत-विरोधी नीति से हटकर 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' (संपादक : कन्हैया लाल नंदन) निकाला था, जिसे काव्यप्रेमी पाठकों ने हाथों-हाथ लिया था। वह ग्रन्थ साहित्य अकादमी का अबतक का बेस्टसेलर सिद्ध हुआ। हमारे समय के प्रायः सभी नवगीतकार एक से एक संकलन निरंतर दे रहे हैं। इन सबका विवरण देना मेरे लिए अभी संभव नहीं है। कुछ संकलन जो मेरे संपादन में निकले, उनका नाम ले लेना लाजिमी है। उनमें रामचंद्र चंद्रभूषण का 'समय अब सहमत नहीं', कैलाश गौतम का 'जोड़ा ताल', सोम ठाकुर का 'एक ऋचा पाटल को', माहेश्वर तिवारी का 'नदी का अकेलापन' उल्लेख्य हैं। इनके अलावा विनोद निगम का 'मौसम के गीत', शांति सुमन का 'नागकेसर हवा', राजकुमारी रश्मि का 'धूप के पंख', किरण मिश्र का 'कम्पन करती धरती', उमाशंकर तिवारी का 'असहमत समय', मधुकर गौड़ का 'साँस-साँस गीत' मेरे समक्ष हैं। इनसे दस गुना अधिक संकलन मेरे निजी पुस्तकालय में हैं, जो इस कोरोना काल में बिलकुल अस्त-व्यस्त हैं। मुझे विश्वास है कि अन्य मित्र मेरी इस कमी को पूरा कर देंगे।
अवनीश सिंह चौहान— वर्तमान में प्रिंट और सोशल मीडिया में सक्रिय युवा पीढ़ी से क्या-क्या सम्भावनाएँ हैं? आपकी दृष्टि में युवा पीढ़ी द्वारा सृजित सर्वाधिक चर्चित नवगीत संग्रह कौन-कौन से हैं और क्यों?
बुद्धिनाथ मिश्र— युवा पीढ़ी अब केवल पत्र-पत्रिकाओं में छपने या जिस किसी तरह से गीत-संग्रह के मुद्रण तक सीमित नहीं है। इंटरनेट ने उसे फेसबुक, व्हाट्सएप्प, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि तमाम सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म सुलभ करा दिए हैं। इसलिए आज की पीढ़ी की सृजनशीलता को किताबों में आँकना भारत दर्शन पर आये पर्यटक का मात्र अण्डमान देखकर लौट जाना होगा। सोशल मीडिया पर बिखरे नवगीत साहित्य को समीक्षा में समेटने का काम अभी शुरू नहीं हुआ है। उसकी प्रक्रिया क्या होगी, यह भी अभी तय नहीं है। इसलिए अभी मेरे सामने जो किताबें दिख रही हैं, उन्हीं तक मुझे सीमित रहने की अनुमति दी जाए। इनमें राजेंद्र राजन का 'केवल दो गीत लिखे मैंने' (2017), अवनीश सिंह चौहान का 'टुकड़ा कागज का' (2013), डॉ मधु शुक्ला का 'आहटें बदले समय की' (2015), जयकृष्ण राय तुषार का 'सदी को सुन रहा हूँ मैं' (2014), कमलेश द्विवेदी का 'मेरे गीत समर्पित उसको' (2016) मैंने पूरा पढ़ा है। अवनीश जी का संकलन विशुद्ध नवगीत संकलन है। बाकी संकलन गीत-नवगीत का मिला-जुला रूप है। वैसे गीत से ही विशेष प्रयोजन से निकली शाखा नवगीत है, जैसे सनातन धर्म से निकली शाखा सिख पंथ है।
आज की युवा
पीढ़ी की समस्या
यह है कि
वह बिना कसौटी
पर खरा उतरे
बाजार की चलन
में शामिल हो
जाती है। हमलोगों
को पत्र-पत्रिकाओं
और आकाशवाणी के
प्रोड्यूसरों की पैनी
नजर से गुजरना
पड़ता था। सोशल
मीडिया में आप
स्वयं सम्पादक हैं।
इससे गुणवत्ता नियंत्रण
न होना स्वाभाविक
है, जिसका खामियाजा
प्रथमतः रचनाकार को और
अंततः साहित्य को
भुगतना पड़ेगा। इसलिए ऐसे
समय में युवा
पीढ़ी की जिम्मेदारी
बढ़ जाती है।
उसे स्वेच्छा से
किसी वरिष्ठ कवि
को गुरु बनाकर
उनसे मार्गदर्शन लेना
पड़ेगा। साथ ही
आत्म-परीक्षण की
कसौटी को भी
मजबूत करना पड़ेगा।
हमारे समकालीन गीत-कवियों की तुलना
में नयी पीढ़ी
के गीत-कवियों
के समक्ष संभावनाएँ
भी अधिक हैं
और चुनौतियाँ भी।
मुझे पूरा विश्वास
है कि जैसे
हमने अपने अध्यवसाय,
धैर्य और सर्जनात्मक
ऊर्जा से नवगीत
को पहचान दी
और उससे पहचान
ली, उसी प्रकार
आनेवाले गीत-कवि
भी हमारा अनुसरण
करते हुए हमसे
आगे बढ़कर नया
कीर्तिमान स्थापित करेंगे।
Interview: Buddhinath Mishra in Conversation with Abnish Singh Chauhan
नवगीत के ऐतिहासिक परिदृश्य पर प्रकाश डालते हुए, उसकी जनप्रियता ,नव्यता और साहित्य अकादमी के
जवाब देंहटाएंउपेक्षा भाव में आई कमी को दर्शाता महत्वपूर्ण साक्षाकार| डॉ. बुद्धिनाथ सिंह ने साहित्यिक ईमानदारी से अपनी बात कही है,
चाहे वह तारसप्तक के सन्दर्भ हो या डॉ.शम्भूनाथ सिंह के नवगीत दशक के बारे में | प्रस्तुत साक्षात्कार नवगीतों से जुडी
अनेक भ्रान्तिओं को दूर करने में सहायक होगा ऐसा मेरा विश्वास है| हार्दिक बधाई--डॉ.मनोहर अभय
इस साक्षात्कार में डा.बुद्धिनाथ मिश्र जी की काव्य यात्रा के साथ साथ गीत की भी विकास की यात्रा का भी सुन्दर विवरण है और आज की साहित्यिक स्थिति और परिस्थिति का लेखा जोखा भी। बहुत सारगर्भित साक्षात्कार। मेरी हार्दिक बधाई। आदरणीय डा बुद्धिनाथ जी,एवं अवनीश चौहान जी को।
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