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रविवार, 5 सितंबर 2021

समीक्षा : प्रियंका चौहान कृत 'वैदिक वाड्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी' — वीरेन्द्र आस्तिक

डॉ प्रियंका चौहान, 'वैदिक वाड्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी', बरेली : प्रकाश बुक डिपो, 2012
मूल्य : रु. 60/-,  पृष्ठ : 90, ISBN: 978-81-7977-443-4
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वैदिककाल में विज्ञान और प्रौद्योगिकी

हिन्दी साहित्य में वैदिक वाङ्मय पर केन्द्रित सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। समय-समय पर अनेक साहित्यकारों की कृतियाँ, शोध कार्य या अनुवाद के रूप में प्रकाशित होती रही हैं। इसी क्रम में सन् 2012 में एक पुस्तक— ‘वैदिक वाङ्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, जिसकी लेखिका हैं ख्यात समाज-सेविका एवं शोधकर्ती डॉ प्रियंका चौहान।

कोई भी प्रथा या संस्कार जो हमारे सामाजिक जीवन में अभिन्न अंग के रूप में जुड़ा हुआ चल रहा है, हमें नहीं पता होता कि वह संस्कार कितनी लम्बी यात्रा तय कर चुका है। हमारे आधुनिक जीवन में आज भी अधिकांश परम्पराएँ और मान्यताएँ वैदिक काल से ही प्रचलन में हैं। यह तथ्य हमें वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है। वैदिक भाषा का स्वरूप संस्कृत है। संस्कृत भाषा की समृद्धता ही वह तथ्य है जिससे अवगत होता है कि भाषा का आविष्कार वैदिक युग से भी पुराना है। वैज्ञानिक दृष्टि से वैदिक काल का सामाजिक जीवन तथा उसका निस्तारण सभ्यता का चरम कहा जा सकता है, जैसा कि डाॅ प्रियंका चौहान ने कहा है— "विज्ञान और प्रौद्योगिकी के तत्वावधान में ही समुचित सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ फलती-फूलती हैं" (पृ. 4)। लेखिका ने इस कृति में वैदिककालीन स्थापत्य, खगोल, भौतिकी, रसायन, गणित, चिकित्सा, कृषि, अध्यात्म व दैविक विज्ञान एवं रहन-सहन (घरेलू) विज्ञान आदि विषयों को उदाहरण सहित तथा सुगमतापूर्वक व्याख्यायित करके आम पाठक के लिए सहज कर दिया है।

सर्वप्रथम स्थापत्य प्रौद्योगिकी के बारे में डॉ प्रियंका का कहना है कि वैदिक काल के विश्वकर्मा (बढ़ई) को मकानों का निर्माण तथा डिजाइन करना आता था। तब के काष्ठकार कला निपुण थे। उन्हें एक हजार खम्भों वाले सभागार (सहस्त्र स्थूण प्रासाद) को निर्मित करने की कला आती थी। तब बहुधा लकड़ी के मकान बनाए जाते थे। वेदों में लकड़ी छीलने (तक्षण) तथा लोहे-ताँबे के यंत्रों (आयसी, वासी) से तत्कालीन प्रौद्योगिकी का पता चलता है। वेदों में वन की देवी को ‘अरण्यानी’ कहा गया है। गृह निर्माण में मापने के लिए ‘मित’ या 'निर्मित' तथा दीवार के लिए ‘पक्ष’ शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। आँगन (अजिर), अंतःपुर (पत्नी सदन) तथा पशुशाला आदि की निर्मितियों से अवगत होता है कि आर्यों की स्थापत्य प्रौद्योगिकी वैज्ञानिकता से परिपूर्ण थी।

भौतिकी एवं रसायन विज्ञान खण्ड में वर्णित है कि आर्यों को द्रव्य, शक्ति, ताप, विद्युत, प्रकाश और ध्वनि आदि की पूर्ण जानकारी थी। उन्हें दैनिक जीवन में निस्तारण हेतु ऊर्जा को परिवर्तित करने की विधियाँ ज्ञात थीं। उन्हें पता था कि शक्ति का नाश नहीं होता है, केवल रूप बदलता है। यह आधुनिक विज्ञान का भी एक तथ्य है— "अया ते अग्ने विधेमोर्जो नपा दश्वमिष्टे एना सूक्तेन सुजात" (2/6/2 ऋग्वेद),पृ. 8।

ऋग्वेद में शक्ति की इकाई के रूप में अश्वशक्ति के प्रयोग मिलते हैं। प्रकाश-गति, सूर्य-किरणों की गति के बारे में आर्यों की जानकारी पूरे विश्व को चकित कर देने वाली है— करघा, सुनार की फुँकनी, घड़ा, कुम्भकार, यज्ञ, चक्र, पत्थर की चक्की, धनुष, लोहा, पीतल, काँसा ढ़ालने की कुहालियाँ, उस्तरा, परशु, दात्री, कंघी, तकली, कपड़ा छपायी आदि गति-सूचक शब्दों से पता चलता है कि आर्यगण एक वैज्ञानिक जीवन जी रहे थे। 'ब्रह्म क्या है', 'शब्द की उत्पत्ति कैसे होती है', की खोज उन्होंने कर ली थी। आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल जैसे तत्वों तथा उनके अंतर्सम्बंधों से सृष्टि का रचनात्मक प्रादुर्भाव ऋग्वेद में वर्णित है। जहाँ तक ब्रह्म का विस्तार है वहाँ तक वाक् का प्रसार है।

रेडियो अर्थात् बेतार का तार के संकेत मिलते हैं, जैसे— "हे द्युलोक की विद्युत तरंगों मेरे इस शब्द और वाणी को अज्ञान के नाश के लिए दूर ले जाओ।" इसी प्रकार व्यक्त या अव्यक्त अग्नि (रूप) को देवों (वैज्ञानिकों) द्वारा मथे जाने पर विद्युत की तरंगे दूर देशों तक ले जाती हैं (पृ. 12)। इस तथ्य को दूरदर्शन के सन्दर्भ में समझा जा सकता है, जिसे ऋग्वेद की 5/6/17 तथा 3/9/5 ऋचाएँ प्रमाणित करती हैं।

ऋग्वेद में रसायन विज्ञान भी उन्नत अवस्थाओं में था। 'हिरण्य श्रृंगे यो अस्य पादा', ‘अयो मुखम’, 'हिरण्यनिर्णिगयों अस्य स्थूणा’ आदि सन्दर्भ उपलब्ध हैं, जिनका अर्थ है— स्वर्ण जड़ित सींग, लोहे से युक्त पैर, लोहे के मुख वाले तीर, सोने एवं लोहे के खम्भे इत्यादि। यजुर्वेद में कई ऋचाएँ हैं, जो ‘लोहे, सीसे, राँगा, स्वर्ण आदि की उपयोग विधियाँ दर्शाती हैं। आर्यों को अमरत्व प्राप्ति रसायन (अल्केमी) तथा भैषज्य रसायनों (इस्ट्रोकेमेस्ट्री) की उत्पादन विधि मालूम थी। (पृ. 14-15)।

कृति में खगोल खण्ड के अंतर्गत सृष्टि को परिभाषित किया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में यह विदित है कि सृष्टि-उत्पत्ति का कारण कोई नहीं जानता। सृष्टि की रचना के पहले केवल ब्रह्म था और कुछ नहीं था। न आकाश, न पानी (उदक), न जन्म, न मृत्यु थी। ब्रह्म से ही सृष्टि उत्पन्न हुई। सूर्य, चन्द्र, आकाश आदि अस्तित्व में आए। द्यावा पृथ्वी बनी, वृक्ष उगे, नदियाँ, समुद्र बने, किन्तु यह कोई नहीं जानता कि पूरे जगत को किसने रचा। यह रहस्य आज भी रहस्य है। वेदो में कहा गया है— परमाकाश या परमात्मा जानता होगा अथवा वह भी नहीं जानता होगा। पूर्व में जो था वह सत् था तथा वह उत्तानपद हुआ , जिससे पृथ्वी अस्तित्व में आई आर्यों ने यह जान लिया था कि पृथ्वी ऊपर को उठी हुई है, अर्थात् उत्तानपाद है। आकाश (स्पेस) आदि के अस्तित्व में आ जाने से खगोल विद्या का विस्तार हुआ। (पृ. 20-21)

वस्तुतः अस्तित्व की अनुभूति होने पर ही हम दिशाओं का ज्ञान कर सकते हैं। यदि अंतरिक्ष में किसी को छोड़ दिया जाए तो वह दिशा-विहीन तब तक रहेगा जब तक उसे यह न अनुभूति हो जाए कि उसके सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी आदि से सम्बन्ध कैसे हैं। संबंध स्थापित होते ही दिशा तथा दूरी का ज्ञान प्रकट होता है। वेदों में सृष्टि, ग्रह, नक्षत्र, ऋतु, आकाश गंगा, तिथि, मास, अधिमास, रात्रि, राशियों, तथा ज्योतिष और गुरुत्वाकर्षण विस्तार से विश्लेषित किया गया है। 

गणित के अंतर्गत गुणा, भाग, शून्य, दशमलव, पाई आदि के प्रयोग मिलते हैं। आर्ष प्रणाली में संख्याएँ उल्लिखित हैं। लाख, करोड़ व अरब संख्या के द्योतक शब्दों का स्रोत यजुर्वेद का मंत्र है— (17/2, यजुर्वेद, पृ. 26), इसी सूत्र के अनुसार परार्द्ध मान 10 घात, 8 (10’8) है। ऋग्वेद में सामान्य भिन्न— अर्द्ध 1/2, त्रिपाद 3/4, शफ 1/8, कला 1/16 का वर्णन है। यजुर्वेद में सम व विषम समुच्चय संख्याओं के अस्तित्व को पहचाना गया है। सांख्यिकी शब्द का प्रयोग शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय आरण्यक में हुआ है। यजुर्वेद के श्रोत सूत्रों में शुल्व सूत्र समाविष्ट है। शुल्व का अर्थ है रस्सी, फीता, जिसकी सहायता से वेदी, मण्डप, अग्नि चिति आदि का विन्यास करने की प्रथा वर्णित है। शुल्व सूत्रों में इकाई के रूप में अँगुल का प्रयोग प्रमाणित है। 14 अणु (दाने) या 84 तिल के दानों की कुल मोटाई एक अंजुल की लम्बाई होती है। एक पुरूष 120 अंगुल का होता है। इसके अलावा आयत, त्रिभुज वृत्ताकार पहिया तथा पाइथागोरस प्रमेय आदि का स्पष्टतः उल्लेख है, जिसे 32$42=52 बोधायन सिद्धांत कहा गया है। (पृ. 28)

वेदों में चिकित्सा विज्ञान जो अथर्ववेद का उपवेद है तथा जो आयुर्वेद के नाम से अभिहित है, विश्व का प्रथम चिकित्सा तंत्र है। आयुर्वेद इसलिए कहा गया, क्योंकि इसमें आयु प्रतिपाद्य विषय है— "आयुरस्मिन विद्यते इत्यायुर्वेदः"’ (पृ. 33)। वैदिक वाङ्मय में आयुर्वेद के 8 अंगों का विश्लेषण प्राप्त होता है— 1. शल्य तंत्र : चीड़-फाड़ करके अंगों से दूषित तत्वों को निकालना तथा सन्धान कर्म (प्लास्टिक सर्जरी) एवं प्रत्यारोपण (ट्रान्सप्लांटेशन) विद्या का ज्ञान निहित है। कहते हैं कि शल्य चिकित्सा का ज्ञान अश्विनी कुमारों ने ऋषि दधीचि से प्राप्त किया था। 2. शालाक्य तंत्र : गले के ऊपर के सभी अंगों की चिकित्सा का समावेश है। 3. काय चिकित्सा : शरीर के सभी अंगों की चिकित्सा का प्रावधान है। 4. भूत विक्षा : इसके अंतर्गत अथर्ववेद में मानस रोगों का निदान है। 5.  कौमारभृत्य : बालकों के भरण-पोषण आदि संबंधी चिकित्सा होती है। 6. अगदतंत्र : इस सम्बन्ध में विष एवं निर्विषीकरण का प्रयोग किया जाता है। 7. रसायन तंत्र : इसका मुख्य कार्य धातुओं को आयायित कर मन तथा शरीर को हष्ट-पुष्ट रखना है। 8. वाजीकरण तंत्र : यौन जीवन को सुखी बनाना तथा स्वस्थ संतति की प्राप्ति हेतु अध्ययन समाहित है। (पृ. 34)

वेदों में 300 वर्षों तक की लम्बी आयु की कामना की गई है। अथर्ववेद में इससे आगे यानी एक हजार वर्ष की आयु का उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद में वात, पित्त तथा कफ (त्रिधातु) विकार माने गए हैं। चिकित्सा पद्धतियाँ प्रायः प्राकृतिक, तात्विक (खनिज) एवं सूर्य-किरणों द्वारा अन्वेषित की गई हैं। रूद्र, अग्नि, वरूण, मारुत, इन्द्र आदि देवता देवभिषक के रूप में तथा अश्वनी कुमार बन्धु वैद्य के रूप में प्रचारक थे। ऋग्वेद में औषधियों का विपुल भण्डार है। चिकित्सा विज्ञान की संहिताओं के निर्माता के रूप में महर्षि आत्रेय, अग्नि वेश, धनवन्तरि और काश्यप उल्लिखित हैं। अथर्ववेद में नाड़ी विज्ञान तथा कठोपनिषद में 72 करोड़ नाड़ियों की व्याख्या मिलती है।

ऋग्वेद में कृषि को भी विज्ञान कहा गया है, जो आज की व्यवस्था के लिए चिंतन का विषय है। पशु पालन, अन्न का उत्पादन तथा उसका भण्डारण विधियों का उल्लेख कृषि विज्ञान में मिलता है। पशुओं की खाल से मशक एवं युद्ध-कवच और करीष (गोबर की खाद) बनाने तथा मीठा दूध देने वाली गायों का वर्णन है— “इहैव गाव एतनेहो शकेव पुष्यत् । इहैवोत प्रजायध्वं मयि संज्ञानमस्तु वः।।” (3/14/4 अथर्ववेद)

ऋग्वेद  के छठे मंडल में ऋषि भारद्धाज ने कहा है— गाय-दुग्ध सोम की प्रथम घूँट है (पृ 45)।

वैदिक साहित्य में नदियाँ, अश्व तथा गौवें विशिष्ट स्थान रखती हैं। वस्तुतः वैदिक विमर्श में भौतिक पदार्थों और अध्यात्म का परस्पर संग्रथित और संश्लिष्ट रूप मिलता है। ऋग्वेद में हल कोे लांडल या सीर कहा गया है। हल को 6 या 12 बैलों द्वारा खींचा जाना, जुताई के लिए लकड़ी का फाल, फसल काटने के लिए दात्र व सृणि, कुदाल, परशु, कुलिश, वृष्ण, वाशी और तेजस, शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। हलों से भूमि जोतते हैं। (सीर : युज्जन्ति), बीज बोए हैं (वपन्तः), लवनी (लूनर्तः), मणनी (मृणान्तः) रहँट और कूप (अवट, आहाव, द्रोण), गरारी (अश्मचक्र) द्वारा पानी सींचने का उल्लेख मिलता है।

अथर्ववेद (छान्दोग्य उपनिषद में भी) में टिड्डियों द्वारा फसल के नष्ट होने का उल्लेख है। धान की पाँच किस्में— सफेद धान (शुक्ल द्रोही), जल्द पकने वाला धान (आशुधान्य), साठः धान, (षाष्टिक) अर्थात् साठ दिनों में तैयार होने वाला धान, इसके अलावा दालों का वर्णन, प्रियंगु (कांगनी), अणु (सावां), श्यामक (बाजरा), उड़द (माष), मूँग (मुदग), शाक में कमल, ककड़ी आदि तथा सरसों (शारिशाका), मसालों में नमक नहीं है, हल्दी, नींबू, मिर्च, राई, तिल आदि के अनेक संदर्भों में विवरण मिलते हैं।

वेद वास्तव में उपनिषदों की पूर्वपीठिका है। वहाँ ब्रह्माण्ड में आत्मा और परमात्मा के सूक्ष्म संबंधों की गणितीय एवं वैज्ञानिक विवेचना मिलती है। इस कृति में अध्यात्म और दैविक विज्ञान (6वां खण्ड) के अन्तर्गत उस तत्व का बोध कराने का प्रयत्न किया गया है, जिसे सृजनकर्ता या ‘वह एक’ तथा सार रूप में उसे ‘तदेकम (वह एक) नाम से अभिहित किया गया है। वही एकेश्वर है। ऋग्वेद में परमपिता के रूप में ऋषियों द्वारा अनेक उद्घोषणाएँ हैं। सार रूप में प्रकृति (सृष्टि), पंच महाभूतों (स्थूल तथा सूक्ष्म) तथा उनके देवताओं के परस्पर अनुशासन और सामंजस्य के फलस्वरूप परम पुरूष की संकल्पना की गई है। ऋग्वेद में ब्रह्माण्डीय जीवन के अस्तित्व को निरूपित करने के लिए सत्य और ऋत जो जगत-रचना के पूर्व भी थे तथा वही विश्व के स्थित रूप में व्याप्त हैं, वही अविनाशी सत्ता है। वस्तुतः प्रकृति में वह अग्नि है, जो जीवन (जीव) में श्वास (तथा उसके विभिन्न रूप) के माध्यम से शरीर में प्रज्जवलित रहती है तथा जो मानव में प्रज्ञा, बुद्धि, बल, ज्ञान, स्मृति आदि में रूपान्तरित होती रहती है। इसी सन्दर्भ में घृत तथा गौ के महत्व वर्णित है। घृत अग्निधर्मा है। इसी सन्दर्भ में गायत्री मंत्र, सविता, आक्सीजन, हाइड्रोजन जल, नाइट्रोजन आदि गैसों (तत्व) के अंतर्सबन्धों को जान लिया गया था। (पृः 52)

अन्तिम खण्ड में सामाजिक रहन-सहन की वैज्ञानिकता पर प्रकाश डाला गया है। ऋग्वेद के अध्ययन से पता चलता है कि मनुष्यों की सभ्यता में वस्त्र, काष्ठ (रथ आदि), सौंदर्य प्रसाधन (आभूषण, केश विन्यास की सभ्यता) आदि का विकास हो चुका था। ऋग्वेद में रुई (कपास) का उल्लेख नहीं मिलता है। भेड़ों की ऊन (अर्णा सूत्र) से निर्मित वस्त्रों का प्रचलन था। आर्यों को वस्त्र बुनने की कला आती थी। करघा (वेमन तंत्र), ताना को ओत, बाना को तन्तु तथा सुई को सूचिका कहा जाता था। ऊपर पहनने वाले वस्त्रों को ‘वाससः, नीचे के वस्त्रों को अधोवस्त्र या नीवी और काँधे पर ओढ़े जाने वाले वस्त्रों को अधिवास कहा गया है। वैवाहिक अनुष्ठानों में, जड़ी-बूटियों वाले जल से स्नान, अनुलेपन, अंजन आदि का महत्व था। अथर्ववेद में सुगन्धित सामग्री के रूप में ‘गुग्गुल’ तथा ‘औक्ष’ वर्णित है। इस प्रकार वेदों में आर्यों की संस्कृति-सभ्यता को नाना भाॅति से व्याख्यायित किया गया है।

वेदों के अध्ययन से पता चलता है कि उस काल में भाषा विज्ञान अपनी उन्नत अवस्था में था (पृ. 68)। शतपथ ब्राह्मण में वाक् को विश्लेषित किया गया है। ऋग्वेद में भाषा के चारों चरणों, यथा— परा, पश्यंती, मध्यमा तथा बैखरी के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है। वस्तुतः वेद-भाषा-विज्ञान ही आधुनिक भाषा विज्ञान की आधारशिला है। (पृ. 68)

वैदिक भाषा में शब्दार्थ ही वह कुंजी है, जिसके द्वारा आज के समय के समक्ष एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जा सकता है। यास्क ने निरूक्त में यह स्वीकार किया है कि वेद के अर्थ को बुद्धि के माध्यम से समझ कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। (पृ. 59)

वास्तव में डा प्रियंका चौहान वेद-मर्मज्ञ हैं। मेरे इस कथन को उनकी पुस्तक— "वैदिक वाङ्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी" प्रमाणित करती है। उनकी भाषा-शैली की यह विशेषता है कि उन्होंने मात्र 80 पृष्ठों में वेदों की सारवस्तु को सहज रूप में प्रस्तुत कर दिया है। पाठकीय दृष्टि से निःसंदेह यह पुस्तक विश्वसनीय एवं आश्वस्तिदायक है। कृति का स्वागत होना चाहिए।

समीक्षक : वीरेंद्र आस्तिक (15 जुलाई 1947) हिंदी गीत-नवगीत विधा के सशक्त कवि, आलोचक एवं सम्पादक हैं। 'परछाईं के पाँव', 'आनंद ! तेरी हार है', 'तारीख़ों के हस्ताक्षर', 'आकाश तो जीने नहीं देता', 'दिन क्या बुरे थे', 'गीत अपने ही सुनें' आदि गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशित। इन्होंने 'धार पर हम- एक' और 'धार पर हम- दो' का बेहतरीन संपादन किया है। इन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा 'साहित्य भूषण सम्मान' (2018) से अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क : एल-60 गंगा विहार, कानपुर-208010 (उ.प्र.), 9415474755

Vedic Vangmay Mein Vigyan aur Praudhyogiki by Dr Priyanka Chauhan. Reviewed by Virendra Astik

1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुंदर और सारगर्भित विषय पर लेखन और सार्थक समीक्षा के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं एवम बधाई 💐💐

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