शोध आलेख : पूर्वाभास, वर्ष 1, अंक 1, जनवरी 2022
आधुनिक हिन्दी कविता में त्रिलोचन एक प्रगतिशील कवि के रूप में विख्यात हैं । प्रगतिशील कवि महान मानवीय मूल्यों और मनुष्यता की खोज का कवि होता है । मनुष्य की ‘जययात्रा’ को सफल और सार्थक बनाने के लिए जितने भी तत्व आवश्यक होते हैं, वह सब उसकी कविताओं में निहित होते हैं । मसलन प्रेम, करुणा, संघर्ष, श्रम, साहस, आस्था, सौंदर्य, प्रकृति, मनुष्यता, सत्य, न्याय, जिजीविषा आदि । इन मूल्यों को वह मानव-जीवन व समाज में वैसे ही रोपने की कोशिश करता है, जैसे एक किसान अपने खेतों में बड़े ही संयमित और सधे रूप में धान की रोपाई करता चलता है । प्रगतिशील कवि रचनाकर्म को एक गंभीर सामाजिक दायित्व के रूप में लेता है । कविता उसके लिए केवल आत्मशोध या आत्मतुष्टि (आनंद) का माध्यम मात्र नहीं होती, बल्कि जीवन को रचने और सँवारने का पर्याय बन जाती है । केदार ने लिखा – ‘कि जब मरूँ संसार को संवारते-संवारते मरूँ, संवारने का सुख भोगते-भोगते मरूँ ।’ उसकी चिंता का केंद्र ‘कविता’ नहीं बल्कि ‘जीवन’ है – ‘धूप सुंदर/ धूप में जग रूप सुंदर/ ....सोचता हूँ क्या कभी/ मैं पा सकूँगा/ इस तरह/ इतना तरंगी/ और निर्मल/ आदमी का रूप सुंदर ।’1 ‘शब्द साधना’ उसके लिए कवि-व्यक्तित्व और कविता को चमकाने का कारण नहीं बल्कि जीवन से कुछ बेहतरीन खोज लेने, पाने और फिर उसे बाँट देने के लिए है । लेकिन लेन-देन की यह प्रक्रिया तभी सफल और सार्थक होगी जब रचनाकार का ‘लोकजीवन से गहरा जुड़ाव’ होगा । अन्यथा नहीं । यह जुड़ाव ही उसके भीतर की जड़ता, निराशा, कुंठा आदि को समाप्त कर उसे नई आशा, दृढ़ संकल्प, साहस और ओज से भरकर जीवन व संसार को नए सिरे से बदलने की इस सांस्कृतिक प्रक्रिया के लिए उत्साहित और प्रेरित करती है । त्रिलोचन ने रचनाकर्म के इस मूलमंत्र को जान लिया था – ‘मुझमें जीवन की लय जागी/ मैं धरती का हूँ अनुरागी/ जड़ीभूत करती थी मुझको/ वह संपूर्ण निराशा त्यागी/ मैं निर्भय संघर्ष-निरत हो/ बदल रहा संसार तुम्हारा ।’2 प्रगतिशील कवि और उसकी कविता की यह अपनी विशेषता है कि आप उसे जहाँ से भी टटोलने या पकड़ने की कोशिश करें एक चीज जो आपको समान रूप से सर्वत्र मिलेगी वह है – जीवन के प्रति उसका झुकाव । यह झुकाव ही उसे सहजता की उस भूमि पर ले जाता है जहाँ उसका सृजनकर्म ‘जीवन सौंदर्य’ का कारण बन जाता है ।
नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की त्रयी हिन्दी में प्रगतिशील कविता की धुरी मानी जाती हैं । रचनात्मक उद्देश्य की एकता होने के बावजूद यहाँ ‘हर एक का अपना अनुभव है, अपनी दृष्टि है और अपना मत’ है । नागार्जुन और केदार की कविताओं का स्वर बहुत कुछ एक-सा है, लेकिन त्रिलोचन के यहाँ जीवन के धूप-छांही झिलमिल की आभा और उसको अभिव्यक्त करने का ढंग तनिक जुदा है । प्रगतिशील कविता की यथार्थवादी धारा के विकास में त्रिलोचन की अलग भूमिका पर विचार करते हुए मैनेजर पांडे ने लिखा – “त्रिलोचन का यथार्थवाद दूसरे कवियों के यथार्थवाद से कुछ अलग है । उसमें न कहीं भावुकता है, न झूठा आशावाद; न काल्पनिक संघर्षों के अमूर्त्त चित्र हैं, न मारो-मारो, काटो-काटो की ललकार है । वहाँ जनशक्ति में आस्था है, संघर्ष के लिए आव्हान है, मुक्ति आंदोलन के गीत भी हैं, लेकिन यह चेतावनी है कि – ‘सोच समझकर चलना होगा ।’ उनकी कविता का मुख्य स्वर यह है – ‘भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय/ पर अभाव से दबे नहीं, जागे स्वभावमय ।’ जो लोग जन जीवन की कविता में केवल आशा और उल्लास देखना चाहते हैं, उनको लक्ष्य करके त्रिलोचन ने लिखा – ‘अगर न हो हरियाली/ कहाँ दिखा सकता हूँ? फिर आँखों पर मेरी चश्मा हरा नहीं है । यह नवीन ऐयारी/ मुझे पसंद नहीं है/ जो इसकी तैयारी करते हों वे करें/ अगर कोठरी अंधेरी है तो उसे अंधेरी समझने-कहने का मुझको है अधिकार ।’3 अगर जनता के जीवन में संघर्ष और दुःख है तो उस वास्तविकता को झुठलाना गलत है । लेकिन वह यह भी जानते हैं कि ‘दुख के तम में जीवन-ज्योति जला करती है ’। वे किसान-जीवन की करुण कहानी नहीं कहते, उसके स्वाभिमान की रक्षा को महत्व देते हैं। उनकी कविता में किसान-जीवन का यथार्थ सच्चे और खरे रूप में है; न वह भावुकता के उच्छ्वास में डूबा है, न विचारधारा के आग्रह से ढँका है। त्रिलोचन इसी सजग किसान-दृष्टि से समाज, प्रकृति और विश्व को देखते हैं।”
त्रिलोचन की कविताओं में जीवन की वास्तविकताएँ बड़े ही सहज रूप में सामने आती हैं । जीवन का सहज, स्वभाविक, शांत किन्तु गतिशील चित्र बिना किसी तामझाम और शोर-शराबे के । जीवन के यही शांत, सहज, स्वभाविक चित्र उनकी कविताओं में सौंदर्य का आधार बनते हैं । कुछ-एक कविताओं को उदाहरण स्वरूप देख लें । ‘धरती’ संग्रह में संकलित उनकी एक प्रसिद्ध कविता है – ‘चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती ।’ चम्पा सुंदर ग्वाला की अच्छी, चंचल, उधम मचानेवाली लड़की है, जो पढ़ने-लिखने की उम्र में चौपायों को लेकर चरवाही करने जाती है । कवि उसे यह सीख देता है कि – ‘तुम भी पढ़ लो/ हारे-गाढ़े काम सरेगा ।’ गांधी जी की भी यही इच्छा है कि – ‘सब जन पढ़ना-लिखना सीखें ।’ जीवन में पढ़ने-लिखने के महत्व को समझाते हुए कवि चम्पा से कहता है – ‘पढ़ लेना अच्छा है/ ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी/ कुछ दिन बालम संग-साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता/ कैसे उसे सँदेसा दोगी/ कैसे उसके पत्र पढ़ोगी ।’ गाँव की यह चंचला जिस निपट गंवई सयानेपन के साथ कवि को जवाब देती है, वह हमें कई दृष्टिकोण से सोचने व समझने को विवश करता है – ‘तुम कितने झूठे हो, देखा,/ हाय राम; तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो/ मैं तो ब्याह कभी न करूँगी/ और कहीं जो ब्याह हो गया/ तो मैं अपने बालम को संग-साथ रखूँगी/ कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी/ कलकत्ता पर बजर गिरे ।’4 यहाँ दो पंक्तियाँ गौर करने लायक है । पहली ‘तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो ।’ यह पंक्ति पढ़े-लिखे समाज पर कटाक्ष है, जिसकी जीवन शैली सहज, स्वभाविक न होकर दिखावे और जटिलता की ओर बढ़ती जा रही है । आवश्यकता से अधिक समझदारी, धूर्तता कहलाती है । गंवई समाज में अक्षर ज्ञान से ज्यादा जीवन से प्राप्त अनुभव का ज्ञान बोलता है । इसी अनुभव के आधार पर चम्पा कहती है – ‘कलकत्ता पर बजर गिरे ।’ यह पंक्ति हमारे मन में कई सवाल पैदा करती है । मसलन चाम्पा क्यों कहती है कि कलकत्ते पर बजर गिरे? क्यों वह विवाह के बाद गाँव में ही अपने बालम के साथ सुखमय वैवाहिक जीवन को नहीं जी सकती? क्यों उसका बालम कलकत्ते जाने को विवश है? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है – ‘पूंजी’ । आज के पूंजीवादी समाज में ‘पूंजी’ ही सुखमय जीवन का आधार है । लेकिन पूंजी के स्रोत का आधारभूत ढाँचा गंवई जीवन से बहुत दूर शहरों में विकसित होता जा रहा है । आजादी के बाद जितना विकास शहरों में दिखाई पड़ता है उतना गाँवों में नहीं । इसीलिए उत्तर भारत के अधिकतर परिवारों में युवा अपना घर-परिवार छोड़कर बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए शहर की तरफ भागता है और न जाने कितनी चंपाओं को अकेले ही गाँवों में गुजर बसर करना होता है । यह कविता ‘पूंजी के विरुद्ध प्रेम के प्रतिरोध’ की कविता है ।
त्रिलोचन की ऐसी ही एक कविता है – ‘परदेशी के नाम पत्र’, जिसमें आर्थिक तंगी की वजह से गाँव का खेतिहर शहर जाकर मेहनत-मजदूरी करता है और उसकी पत्नी गांव में अकेले रह जाती है । पति और पत्नी दोनों की जीवनदशा और मनोदशा का बड़ा ही सटीक चित्रण त्रिलोचन ने इस कविता में किया है । लंबे समय तक पति की कोई खबर न मिलने पर पत्नी घर का हालचाल बताती हुई शिकायत भरे लहजे में पति को पत्र में लिखती है – ‘और वह बछिया कोराती है/ यहाँ जो तुम होते/ देखो कब ब्याती है ।/ ....तुम्हें गाँव की क्या कभी याद नहीं आती है/ आती तो आ जाते/ मुझको विश्वास है/ थोड़ा लिखा समझना बहुत,/ समझदार के लिए इशारा ही काफी है।’ पति पत्र के जवाब में लिखता है – ‘सचमुच इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई/ झूठ क्या कहूँ/ पूरे दिन मशीन पर खटना/ बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई/ का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना/ इस-उस पर मन दौड़ाना, फिर उठकर रोटी करना, कभी नमक से कभी साग से खाना/ ...धीरज धरो आज कल करते तब आऊँगा/ जब देखूंगा अपना घर कुछ कर पाऊँगा ।’5 यह कवि कल्पना नहीं बल्कि खेतिहर-मजदूरों के जीवन की वह त्रासद सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता । जीवन के इस कठिन रूप को जिस कुशलता से चित्रित किया गया है, वह यथार्थवादी कला की देन है । ऐसी त्रासद जीवन-स्थितियों से गहरा परिचय होने के कारण ही कवि पूछ बैठता है – ‘हाथों के दिन कब आएँगे/ कब तक आएँगे, यह कोई नहीं बतलाता’
‘धरती’ संग्रह में एक कविता है – ‘भोरई केवट के घर’ । भोरई जिस गाँव का निवासी है वह रेल-तार से बहुत दूर है । अनपढ़ देहाती होने के नाते ‘राष्ट्रों के स्वार्थ और कूटनीति, पूंजीपतियों की चालें’ वह नहीं समझ पाता लेकिन जीवन के अनुभव से उसने इतना अवश्य जान लिया है कि जिस ‘महँगाई’ ने उसका जीवन तबाह कर दिया उसका कारण है ‘लड़ाई’ यानी दूसरा विश्वयुद्ध । वह कहता है – ‘बाबू, इस महंगी के मारे किसी तरह अब तो/ और नहीं जिया जाता/ और कब तक चलेगी लड़ाई यह ।’6
त्रिलोचन के काव्य-संसार में हमें भोरई केवट, चम्पा, नगई, महरा, लखमनी, भिखरिया जैसे ग्रामीण परिवेश से संबंधित चरित्रों की सृष्टि ही अधिक मिलती है । इन चरित्रों को माध्यम बनाकर कवि ‘ठोस अनुभवों की उस दुनिया’ से हमारा परिचय कराता है जैसा ‘प्रेमचंद के कथा-साहित्य’ में मिलता है । त्रिलोचन की कविता के केंद्र में वह मनुष्य है – जिनकी साँसों को आराम नहीं, जिन्होंने सारा जीवन समाज की कल्मष धोने में लगा दिया और जो अपने जीवन की बाजी लगाकर आगामी मनुष्यता का पथ तैयार करने को तत्पर हैं । लेकिन जब यही मनुष्य शासन व सत्ता द्वारा छला जाता है, देश के नेताओं व नौकरशाहों के द्वारा पूंजीपतियों के शोषण का माध्यम-मात्र बना दिया जाता है तब उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए कवि को आवाज उठानी ही पड़ती है । प्रगतिशील कवि जीवन के इस लड़ाई को कविताओं में लड़ता है । क्योंकि उसके लिए कविता जीवन से अलग या ऊपर की चीज नहीं है । कविता की सार्थकता जीवन की सार्थकता से जुड़ने में ही है ।
देश के लाखों-करोड़ों लोगों ने एक साथ मिलकर ‘आजाद भारत’ के सपनों की लड़ाई लड़ी । देश आजाद भी हुआ । लेकिन इस आजाद भारत में नगई महरा, भोरई केवट, चम्पा, अवतरिया, भिखरिया, लखमनी जैसे न जाने कितने लोग हैं जिनके सपनों को आज तक उड़ान नहीं मिली । देश के पहले आम चुनाव से लेकर आज तक के चुनाव के मूलभूत मुद्दों (रोटी, कपड़ा, मकान, बेरोजगारी) में कोई बदलाव नहीं आया है । जियावन ने चुनाव में नेहरू जी को बोलते हुए सुना था – ‘रोटी कपड़ा सबको किसी तरह देना है/ नाव पड़ी है लहरों में, उसको खेना है/ सब कुछ नया करेंगे/ यह खाली भंडार भरेंगे, विपद हरेंगे ।’ लेकिन हुआ क्या – ‘वे नेहरू जो अपनों को भरते हैं गिन गिन ।’ कथनी और करनी का यह फर्क जियावन में यह विश्वास पैदा करता है कि – ‘पंख लगाकर कौवा फिर मोर न होगा ।’ भोली-भाली जनता को देश के नेताओं ने बड़े-बड़े सपने दिखाए, झूठे वादे किए और जनता इनकी सारी करतूतों की मूक दर्शक बन बैठी – ‘जिसने भोगा है वह तो गूंगी जनता है जिसे जवाहर/ जय प्रकाश गोलवलकर फुसलाया करते हैं/ स्वर्ग तुम्हें हम दिखलाएंगे ।’7 आजाद भारत में गांधी ने रामराज्य का सपना लोगों के सामने रखा । भारत के आम लोगों के लिए रामराज्य आया की नहीं यह तो पता नहीं लेकिन देश के नेताओं, पूंजीपतियों और नौकरशाहों के लिए अवश्य ही रामराज यहाँ स्थापित हो गया । रामराज्य की असल तस्वीर को दिखलाते हुए त्रिलोचन ने लिखा – ‘भीषण कमी अन्न की, बलात्कार की अनुदिन/ बढ़ने वाली गाथाएँ, हत्याएँ, डाके/ चोरी, रिश्वतखोरी, कोई बुरा न ताके/ रामराज्य है ।’ इस व्यवस्था में – ‘अच्छाई इन दिनों बुराई के घर पानी/ भरती है, क्या ठाट बुराई ने बाँधे हैं/ बड़े बड़े अड़ियल भी हार गए.... कहीं किसी ने भौंहें तानी/ उसको निबटाया ।’8 इसीलिए केदार ने लिखा – ‘आग लगे इस रामराज में ।’
त्रिलोचन के कवि-व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है – उसका सधा-संयमित स्वर । कवि प्रायः उद्विग्न नहीं होता । वह चाहे राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक विद्रूपताओं पर व्यंग्य कर रहा हो, चाहे अपनी देखी-भोगी गरीबी का बयान कर रहा हो अथवा मुक्ति का आह्वान, कहीं भी तीव्र भावाकुल आवेग, प्रहार या ललकार की मुद्रा नहीं अपनाता । आवेगों की राग तनी रहती है, वह उन्हें उन्मुक्त नहीं छोड़ता । दरअसल त्रिलोचन घटनाओं के प्रभाव में आकर तीव्र आवेगों की तुरत प्रतिक्रिया करने वाले कवियों में नहीं हैं, बल्कि उन घटनाओं के मूल में स्थित जीवन-संवेगों के स्थिर आवेगों के कवि हैं । यही वजह है कि हिन्दी का सामान्य पाठक आसानी से स्वयं को उनकी कविताओं से जोड़ नहीं पाता बल्कि पहले-पहल पढ़ते ही बिदकने लगता है । इस संदर्भ में अपनी राय रखते हुए मैनेजर पांडे ने लिखा – ‘त्रिलोचन घटनाओं के कवि नहीं हैं । वे मूल्यों के कवि हैं । उनकी कविताओं में सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं का चित्रण-वर्णन बहुत कम है, मानव-जीवन की दशाओं और अनुभवों की अभिव्यक्ति अधिक है । वे मानवीय अनुभवों और जीवन दशाओं की अभिव्यक्ति करते हुए संघर्ष, आस्था, जिजीविषा, प्रेम, न्याय और स्वतंत्रता जैसे जीवन-मूल्यों की व्यंजना करते हैं । ....घटनाओं की कविता हमारे सामने की वास्तविकता का बोध कराती है, इसलिए वह जल्दी मन को छूती है । मूल्यों की कविता सतह के नीचे छिपी सच्चाईयों को पहचानने की अंतर्दृष्टि देती है, इसलिए वह पाठकों से धैर्य की माँग करती है, धीरे-धीरे विवेक को प्रभावित करती है । यही कारण है कि त्रिलोचन की कविता कुछ देर से पाठकों को प्रभावित करती है, मन में जगह पाती है ।’9
दरअसल अपनी कविताओं के लिए त्रिलोचन का प्रयास ‘अनाहत शब्दों’ की ओर रहा – ‘कैसे और कहाँ से शब्द अनाहत पाऊँ’। अनाहत शब्द से उनका आशय- ‘वह शब्द जो कहीं से आहात (विशेषकर राजनीति) न हुआ हो ।’ शायद इसीलिए ‘ठेठ राजनीतिक कविता’ की ओर उनका झुकाव थोड़ा कम ही देखने को मिलता है । इसकी वजह से उन्हें अपने कवि-मित्रों की उपेक्षा, डांट-डपट सबकुछ सहना पड़ा । कवि और उसकी कविताओं को वह लोकप्रियता न मिली जिसका वह हकदार था । लेकिन त्रिलोचन ठहरे ‘शास्त्री’ । उन्होंने न स्वयं को बदला और न अपनी कविताओं को । नामवर जी ने इस प्रसंग को विस्तार से समझाया है – ‘नागार्जुन की स्पष्ट राय है कि कविता में स्पष्ट राजनीति के अभाव ने त्रिलोचन को काफी नुकसान पहुँचाया । नुकसान से आशय यदि नामयिक लोकप्रियता से है तो नागार्जुन की बात ठीक है । त्रिलोचन को नागार्जुन जैसी लोकप्रियता तो निश्चय ही न मिली । लेकिन यदि काव्य के स्तर पर देखें तो स्पष्ट राजनीति के प्रभाव से नुकसान तो नागार्जुन को ही हुआ है, त्रिलोचन से अधिक; बल्कि त्रिलोचन बहुत कुछ बच गए हैं । फिर भी हिन्दी में सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक कविताएँ अगर किसी ने लिखी हैं तो नागार्जुन ने ही । नागार्जुन की तरह यदि त्रिलोचन की स्पष्ट पक्षधरता हर क्षण प्रकट नहीं होती और वे गुस्सा करने के अवसर पर गुस्सा पी जाते हैं तो एक तरह से वे भारतीय किसान के अधिक निकट हैं । इस मामले में वे प्रेमचंद के होरी की परंपरा में हैं । सहिष्णुता और धैर्य के आगार । करुणा उनका स्थायी भाव है । संघर्ष के गहरे अनुभव से ही यह पीड़ा बोध, यह त्रासद चेतना उपलब्ध होती है ।’10 यही वजह है कि नामवर जी उनकी कविताओं को देखने-समझने के लिए एक अलग ‘काव्य-दृष्टि’ की माँग करते हैं ।
छायावाद के बाद हिन्दी में प्रगतिशील कविता (प्रगतिवाद) का दौर आया । प्रगतिशील कविता अपनी वैचारिक खुराक ‘मार्क्सवाद’ से ग्रहण करती है । मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक जीवन-दर्शन है, जो जीवन के साथ-साथ साहित्य के अवलोकन-मूल्यांकन के लिए भी दृष्टि देती है । लेकिन दिक्कत तब होती है जब कोई रचनाकार या आलोचक जीवन से बड़ा ‘दर्शन’ को समझने लगता है । दर्शन जीवन के लिए है, जीवन दर्शन के लिए नहीं । कोई भी विचार, सिद्धांत, दर्शन, कला ‘जीवन’ से बढ़कर नहीं । सब जीवन के कारण है । इनके कारण जीवन नहीं । जो लोग अपने आप को मार्क्सवादी कहने का दंभ भरते हैं वह कविताओं में केवल सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों की छवियों को उकेरते हैं या ऐसे विषयों को देखना पसंद करते हैं और अपने को कलावादी कहलाने का शौक रखते हैं वे कविताओं को जीवन से अलग ‘शुद्ध कला’ का विषय बताते हैं । लेकिन कविता जीवन से जुड़कर अपना घेरा इतना व्यापक और असीम कर लेती है कि कोई भी सिद्धांत, विचार, दर्शन उसे बांध नहीं पाता । कविता जीवन से जुड़कर ही उसके विविध रंगों को बिखेरती है । एकरस, निष्प्राण होने से बचती है । प्रगतिशील कवि (नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार) जीवन और कविता के इस अन्तःसंबंध को जानता है । इसीलिए यहाँ कविता का एकरस, एकरंग रूप आपको नहीं मिलेगा । रूप, रस, गंध, ध्वनि, स्पर्श से भरी कविता जीवन के उत्सव का गान बनकर यहाँ आती है । प्रगतिशील कविता जीवन में संघर्ष और कर्म करने की प्रेरणा देती है – ‘तुम नष्ट करो सब भेदभाव/ तुम भरो निखिल जग के अभाव/ सब बाधा हर/ होकर तत्पर/ नव साहस भर/ तुम विजयी बन कर अपना नियमन आप करो/ जीवन की संचित व्याकुलता सब ताप हरो/ जग-जीवन तुम पर निर्भर/ तुम अपने बल पर निर्भर ।’11 संघर्ष की इस लड़ाई में जब अकेलापन बढ़ जाता है तो उसे अपनी प्राणप्रिया पत्नी की याद आती है – ‘बांह गहे कोई, लहरों में साथ रहे कोई ।’ प्रेम का यह उदात्त रूप उसमें ‘जीवन का लय’ पैदा करता है, जगत-जीवन का प्रेमी बनाता है – एकांत की ओर नहीं ले जाता –‘मुझे जगत-जीवन का प्रेमी/ बना रहा है प्यार तुम्हारा ।’
छायावाद के बाद हिन्दी में प्रगतिशील कविता (प्रगतिवाद) का दौर आया । प्रगतिशील कविता अपनी वैचारिक खुराक ‘मार्क्सवाद’ से ग्रहण करती है । मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक जीवन-दर्शन है, जो जीवन के साथ-साथ साहित्य के अवलोकन-मूल्यांकन के लिए भी दृष्टि देती है । लेकिन दिक्कत तब होती है जब कोई रचनाकार या आलोचक जीवन से बड़ा ‘दर्शन’ को समझने लगता है । दर्शन जीवन के लिए है, जीवन दर्शन के लिए नहीं । कोई भी विचार, सिद्धांत, दर्शन, कला ‘जीवन’ से बढ़कर नहीं । सब जीवन के कारण है । इनके कारण जीवन नहीं । जो लोग अपने आप को मार्क्सवादी कहने का दंभ भरते हैं वह कविताओं में केवल सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों की छवियों को उकेरते हैं या ऐसे विषयों को देखना पसंद करते हैं और अपने को कलावादी कहलाने का शौक रखते हैं वे कविताओं को जीवन से अलग ‘शुद्ध कला’ का विषय बताते हैं । लेकिन कविता जीवन से जुड़कर अपना घेरा इतना व्यापक और असीम कर लेती है कि कोई भी सिद्धांत, विचार, दर्शन उसे बांध नहीं पाता । कविता जीवन से जुड़कर ही उसके विविध रंगों को बिखेरती है । एकरस, निष्प्राण होने से बचती है । प्रगतिशील कवि (नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार) जीवन और कविता के इस अन्तःसंबंध को जानता है । इसीलिए यहाँ कविता का एकरस, एकरंग रूप आपको नहीं मिलेगा । रूप, रस, गंध, ध्वनि, स्पर्श से भरी कविता जीवन के उत्सव का गान बनकर यहाँ आती है । प्रगतिशील कविता जीवन में संघर्ष और कर्म करने की प्रेरणा देती है – ‘तुम नष्ट करो सब भेदभाव/ तुम भरो निखिल जग के अभाव/ सब बाधा हर/ होकर तत्पर/ नव साहस भर/ तुम विजयी बन कर अपना नियमन आप करो/ जीवन की संचित व्याकुलता सब ताप हरो/ जग-जीवन तुम पर निर्भर/ तुम अपने बल पर निर्भर ।’11 संघर्ष की इस लड़ाई में जब अकेलापन बढ़ जाता है तो उसे अपनी प्राणप्रिया पत्नी की याद आती है – ‘बांह गहे कोई, लहरों में साथ रहे कोई ।’ प्रेम का यह उदात्त रूप उसमें ‘जीवन का लय’ पैदा करता है, जगत-जीवन का प्रेमी बनाता है – एकांत की ओर नहीं ले जाता –‘मुझे जगत-जीवन का प्रेमी/ बना रहा है प्यार तुम्हारा ।’
प्रयोगवाद और नई कविता के दौर में प्रगतिवाद पर गंभीर आरोप लगाए गए । मसलन प्रगतिवादी कविता ‘साहित्य का संकीर्णतावादी आंदोलन है, जिसमें रचनाकार की स्वतन्त्रता का अपहरण कर लिया जाता है और प्रगतिवाद विषय-वस्तु पर अत्यधिक बल देकर विचारधारा की नारेबाजी का फार्मूला अपनाता है । इससे साहित्य की ‘कलात्मकता’ और ‘रूपविधान’ की भयंकर उपेक्षा होती है । प्रगतिशील साहित्य में ‘साहित्येतर मूल्यों’ को स्थान मिला किन्तु प्रयोगवाद कविता को केवल ‘काव्यात्मक मूल्यों’ तक ही सीमित रखना चाहता था । इन आरोपों को पूरी तरह से सही नहीं माना जा सकता । यह सबकुछ एक सुनियोजित अभियान के तहत किया गया । प्रातिशील कवियों को यह समझने में देर न लगी कि ‘शुद्ध कविता’ की बात करना, ‘शुद्ध व्यक्तित्व’ की बात करना उन्हें ‘जनपथ’ से हटाने का एक तरीका है । उनकी चालों की कलई खोलते हुए त्रिलोचन ने लिखा – ‘प्रतिभा नहीं चाहिए, मेरे गुट में आओ/ इधर-उधर मत भटको/ देखो स्वयं जमाना/ बहुत बुरा है, बेकारी छायी है। जाना/ सुना तथ्य है/ जाओ वहाँ जहां सुख पाओ/ अपना है रेडियो, वहाँ बोलो या गाओ/ जगह-जगह शाखाएँ हैं, अब नाम कमाना/ और डूबाना अपनी इच्छा पर है । आना/ चाहो आ जाओ, या चूको फिर पछताओ ।’ लेकिन प्रगतिशील कवियों के लिए ‘जन’ की प्रतिबद्धता, व्यापक जन जीवन की खुशी ही सर्वोपरि है – ‘धन की उतनी नहीं मुझे जन की परवा है ।’ जीवन में कोई भी प्रलोभन, पद उसे इस सिद्धान्त से डिगा नहीं सकता । इसीलिए वह ‘जनकवि’ कहलाता है । यह थाती उसे जीवन में सबसे अधिक प्रिय है, जिसके लिए वह कोई भी मूल्य चुका जाता है – ‘बिस्तरा है न चारपाई है । जिंदगी हमने खूब पाई है ।/ ठोकरें दर-ब-दर की थीं, हम थे,/ कम नहीं हमने मुंह की खाई है ।’12
त्रिलोचन की कविता में न आपको ‘समाजवाद’ की हुंकार मिलेगी और न ही शिल्प और रूप की चमक-दमक । इन दोनों के बीच जहां कहीं ‘जीवन’ उपस्थित होता है त्रिलोचन की कविता आपको वहीं मिलेगी । त्रिलोचन ‘जीवन के चित्रकार’ हैं, जो समाज में उठने वाली ध्वनियों को ग्रहण कर उसका चित्र बना देने की कला में माहिर हैं । उन्हें यह बात भली-भांति पता है कि – ‘जीवन जिस धरती का है, कविता भी उसकी’, वह चाय की चुस्की और सिगरेट के धुओं के साथ पूरा किया जाने वाला कोई शगल नहीं बल्कि जीवन-साधना और तप है । कविता को रचने की प्रक्रिया जीवन को रचने की प्रक्रिया के साथ जुड़ी हुई है ।
‘धरती’ का यह कवि जीवन के समक्ष विनत है । ‘शब्द-साधना’ उसके लिए ‘जीवन की खोज’ ही है । भाव, विचार, अनुभूति, शैली की स्पष्टता और सरलता उसकी कविता की आत्मा है । साधारण में भी अनिवार्य रूप से ‘असाधारण’ खोज लेना उसकी प्रतिभा है और जीवन की लय को कविता की लय बनाकर ‘समाज को मानवीय और मनुष्य को सामाजिक’ बनाने का संकल्प उसकी कविता का उद्देश्य है । कुल मिला-जुलाकर यही त्रिलोचन हैं और यही उनकी कविता का शास्त्र है ।
संदर्भ :
2. रवि रंजन, संपादक, लोकचेतना वार्ता, अंक 8-9, वर्ष 2018, पृ. 255
3. केदारनाथ सिंह, संपादक, प्रतिनिधि कविताएं त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण: 2017, पृ. 14
4. वही, पृ. 58
5. गोविंद प्रसाद, संपादक, त्रिलोचन के बारे में, वाणी प्रकाशन, संस्करण: 1994, पृ. 153
6. केदारनाथ सिंह, संपादक, प्रतिनिधि कविताएं त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण: 2017, पृ. 65
7. रवि रंजन, संपादक, लोकचेतना वार्ता, अंक 8-9, वर्ष 2018, पृ. 197
8. वही, पृ. 198
9. गोविंद प्रसाद, संपादक, त्रिलोचन के बारे में, वाणी प्रकाशन, संस्करण: 1994, पृ. 157-58
10. वही, पृ. 88
11. वही, पृ. 138
12. केदारनाथ सिंह, संपादक, प्रतिनिधि कविताएं त्रिलोचन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण: 2017, पृ. 21
डॉ. भैरव सिंह हासिमारा हिंदी हाई स्कूल, अलीपुरद्वार, पश्चिम बंगाल में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। ईमेल : bhairaw.singh490@gmail.com
डाउनलोड पीडीएफ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: