वीरेन्द्र आस्तिक, ‘मगर कब तक’, दिल्ली : कल्पना प्रकाशन, 2022
मूल्य : रु. 395/-, पृ. 126, ISBN: 978-93-91709-33-4
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आजकल कहीं किसी 'सत्ता की परिक्रमा', कहीं किसी 'मान्यता की जकड़बंदी' या कहीं किसी 'वैचारिक असहिष्णुता' में नतमस्तक होने जैसी प्रवृत्ति विकसित होती दिखाई पड़ रही हैं। इस प्रकार की अविवेकपूर्ण प्रवृत्तियों के विकसित होने से जहाँ तर्क और संवाद की प्रक्रिया अत्यधिक मंद पड़ रही है, वहीं 'वैचारिक स्वतंत्र अभिव्यक्ति' पर अंकुश भी लगता चला जा रहा है। इन विषम स्थितियों में भी हमारे बीच कुछ ऐसे निश्छल एवं निडर शब्द-साधक मौजूद हैं, जो अपनी सघन अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर नित्य-नये-रूपों में सार्थक एवं सदुपयोगी चिंतन प्रस्तुत कर रहे हैं।
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उपर्युक्त पृष्ठभूमि में श्री वीरेन्द्र आस्तिक एक ऐसे ही आलोक-स्तम्भ हैं जिन्होंने अपनी विचारात्मक दृष्टि से प्रगतिशील समाज के इस जटिल स्वरुप को कई कोणों से देखा-समझा है। अपनी इस रचनात्मक प्रक्रिया के दौरान उन्होंने आधुनिक मनुष्य की चेतना में खिंचीं फाँकों को चीन्हते हुए समय-समय पर अपनी सर्जना में कई जरूरी प्रश्न उठाये हैं। अलग-अलग तरीकों से उठाये गए इन अलग-अलग प्रकार के प्रश्नों के केंद्र में एक बड़ा प्रश्न जब पुस्तक के शीर्षक— 'मगर कब तक' के रूप में आकार लेता है तब फ़िराक़ गोरखपुरी बरबस याद आते हैं— "उमीदे-मर्ग कब तक, ज़िन्दगी का दर्दे-सर कब तक?/ ये माना सब्र करते हैं मोहब्बत में, मगर कब तक?' जिंदगी और मौत के बीच दर्द के दरिया में इम्तिहान लेती मोहब्बत में भला 'सब्र' भी किया जाये तो कब तक? फ़िराक साहब की उक्त चिंतनधारा से साम्य रखते हुए आस्तिक जी इस समस्या की जड़ में पूँजीवादी व्यवस्था और उससे उपजी मूल्यहीनता को पाते हैं— "ठिकाना प्यार का था जो/ वही अब लापता है/ नई तकनीक के सामान से/ ये घर लदा है/ बढ़ी पूँजी/ मगर दूरी बढ़ी है/ क्यों मनुजता से?" सादगी और सहजता जैसे अलंकारों से स्वाभाविक रूप से प्रदीप्त 'मनुजता' से बढ़ रही दूरी के चलते यहाँ आस्तिक जी के लिए 'मोहब्बत' से भी अधिक महत्वपूर्ण वर्तमान की खौफनाक स्थितियों में 'निडर' होकर जीवन जीना है— "घरों को छोड़ कर पंछी/ वनों में बस रहे हैं/ नहीं मालूम है इनको/ कि जंगल कट रहे हैं/ अभी खुशहाल चिड़िया है/ मगर कब तक निडरता से" — कारण सिर्फ यह कि 'निडरता' से 'विश्वास' उपजता है, 'विश्वास' से 'संकल्प' और 'संकल्प' से 'सिद्धि' होती है।
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इस पूँजीवादी व्यवस्था से जैसे-जैसे उपभोग का संसार विस्तृत हुआ है, वैसे-वैसे मनुष्य की इयत्ता अपनी जड़ों से कटकर समय की रेत में धसती चली गयी है। परिणामस्वरूप मनुष्य को अब भीड़भरे बाजार में भी 'अकेलापन' महसूस होने लगा है— "हो गई बाजार दुनिया/ औ' अकेले हम।" अब प्रश्न उठता है कि यदि हमारी दुनिया महज बाजार बनकर रह जाएगी तो मानव और प्रकृति के मध्य योगात्मक संबंध का निरूपण करने वाली यह शस्य-श्यामला भारत-भूमि अपना वैभव कैसे बचा पाएगी? इस प्रश्न का सीधा उत्तर यह कवि अपने शीर्षक गीत के अंतिम बंध में बड़ी सहजता और सजगता से देता है— "अभी भूले नहीं हम/ वाल्मीकी पर्णकुटियाँ/ अभी भी है/ प्रकृति की छाँव,/ पर्वत और नदियाँ/ बहुत नादान हैं ये बम/ जो टकराते करुणता सें।" यानी कि ऋषियों-मुनियों-कर्मयोगियों की तपस्थली के रूप में अभिहित और प्रेम और करुणा जैसे श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों को धारण करने वाली अपनी यह सुंदर धरती प्राकृतिक संपदा और नैसर्गिक सुषमा से भरी पड़ी है; हम भारतीयों को तो केवल इसके महत्व को समझते हुए 'योग' और 'उपभोग' का संतुलित और कल्याणकारी संसार रचना है।
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कभी महात्मा बुद्ध ने कहा था कि 'बुद्धत्व' की प्राप्ति तभी होती है जब मनुष्य किसी के पीछे नहीं चलता है, बल्कि स्वयं के भीतर रचे संसार में प्रवेश करता है। इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि ‘शब्द-साधक’ को 'शब्द-ब्रह्म' की उपलब्धि तभी होती है जब वह पूरी ईमानदारी से अपने भीतर उतरता है। तब अपनी कला के प्रति असीम अनुराग से उसकी आंतरिक शक्तियों और गुणों का ऐसा विकास होता है कि— "अनुभव, सपनों को सच करके/ और युवा हो जाते हैं/ नए दर्द, फिर नए रूप में/ पतझर पर उग आते हैं/ शब्द सूख तो जाते लेकिन/ स्वप्न नए/ हर बार हरा कर देते।" तदनुकूल ‘चैतन्यता’ की इस विलक्षण स्थिति में 'शब्द' को इस सृष्टि का मूल मानने वाले इस तत्वज्ञानी कवि के अंतर्मन में 'अनाहत स्वर' फूटने लगता है और इस प्रकार 'संस्कृति' के बीजों को बोने बाले नये गीतों का सृजन होता है— "अक्सर पाठों, प्रतिपाठों से/ हम निष्चेत-से हुए हैं/ आखिर हमनें फिर से आदिम-/ संस्कृति के बीज बुए हैं/ शब्द सूख तो जाते लेकिन/ गीत नये/ हर बार हरा कर देते।"
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इस कवि के लिए गीत की सर्जना एक ऐसी साधना है जिससे इस अराजक समय में मानवता को आलोकित करती मानवीय क्षमताओं का समुचित विकास तो संभव है ही, 'युगल सरकार' के नाम, रूप, लीला, गुण की सिद्धि और साक्षात्कार होने में भी कोई संशय नहीं है— "कार्ल-नीत्से अप्रासंगिक/ काम न होगा ईशु-बुद्ध का/ घबरा जाता मन, समय देख/ इन ऐटम औ' न्यूक्लीअर का/ असत् न रोके रुकता इससे/ राधा-कृष्ण प्रकट हो जाएँ।"
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