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मंगलवार, 3 जनवरी 2023

साक्षात्कार : "साहित्य की समाज में आज भी प्रतिष्ठा है" — रामनारायण रमण


रामनारायण रमण का जन्म 10 मार्च 1949 को ग्राम पूरेलाऊ, पो. बरारा बुजुर्ग, जनपद रायबरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ। साहित्य की विविध विधाओं में सर्जना करने वाले रमणजी की प्रकाशित कृतियाँ हैं— 'मैं तुम्हारे गीत गाऊँगा' (गीत,1989), 'निराला और डलमऊ' (संस्मरणात्मक जीवनवृत्त, 1993), 'मुझे मत पुकारो' (कविता, 2002), 'परिमार्जन' (निबंध, 2008), 'निराला का कुकुरमुत्ता दर्शन' (निबंध, 2009), 'हम बनारस में, बनारस हममें' (यात्रा-वृत्तांत, 2010), 'हम ठहरे गाँव के फकीर' (नवगीत, 2011), 'उत्तर में आदमी' (निबंध, 2012), 'नदी कहना जानती है' (नवगीत, 2017), 'जिंदगी रास्ता है' (आत्मकथा— प्रथम खण्ड, 2020), 'पंछी जागे नहीं हैं अभी' (कविता, 2021), 'जोर लगाके हइया' (नवगीत, 2021) आदि। इन्होंने 'गंगा की रेत पर' (काव्य संकलन), 'महाप्राण' (वार्षिकी) व 'डलमऊ दर्शन' (वार्षिकी) का संपादन किया है। इनकी कृति— 'निराला और डलमऊ' पर दूरदर्शन दिल्ली द्वारा वृत्त-चित्र बनाया जा चुका है। इनके नवगीत 'शब्दायन : दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि' (सं.— निर्मल शुक्ल, 2012), 'गीत वसुधा' (सं.— नचिकेता, 2013), 'नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्यबोध' (सं.— राधेश्याम बंधु, 2016), 'नयी सदी के नवगीत— खण्ड चार’ (सं.— डॉ ओमप्रकाश सिंह, 2017), 'समकालीन गीतकोश' (सं.— नचिकेता, 2017) आदि में संकलित हो चुके हैं। इन्हें सरस्वती प्रतिष्ठान (रायबरेली) से 'सरस्वती सम्मान' (1993) सहित आधा दर्जन से अधिक सम्मान/ पुरस्कार प्रदान किये जा चुके हैं

रामनारायण रमण से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

अवनीश सिंह चौहान— आपने सबसे पहले किस रचनाकार को पढ़कर प्रतिक्रिया-स्वरुप अपने विचार शब्दबद्ध किये और कब आपकी रचना आलोचना/ समालोचना के रूप में पहली बार किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हुई?

रामनारायण रमण— यह सौभाग्य की बात थी कि हिंदी नवगीत के प्रणेता कवि डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया हमें हिंदी पढ़ाते थे। कभी-कभी छात्रों के कहने पर वे कक्षा में नवगीत सुनाया करते थे। उन्हें पढ़-सुनकर मेरे मन में कविता के भाव जागृत हुए। पहले साधारण तुकबंदिया होती रहीं; धीरे-धीरे कविता का सृजन होने लगा। जहाँ तक प्रकाशन का सवाल है, तो नवंबर 1975 में मेरी एक रचना— 'किरण ज्योति' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह प्रकाशित मेरी प्रथम रचना है— 'वर्षा ऋतु।'

अवनीश सिंह चौहान— आपने गीत लिखना कब और कैसे प्रारम्भ किया? आपका पहला गीत कब और कहाँ प्रकाशित हुआ? उस समय गीत साहित्य में मानव जीवन का सौंदर्य और यथार्थबोध किस प्रकार से अभिव्यक्त किया जाता था?

रामनारायण रमण— मैंने गीत से ही अपना रचनाकर्म प्रारंभ किया है। पहले-पहल गीत 1970 में लिखा और फिर लगातार लिखता ही रहा। कुछ कहानियाँ भी इसी समय लिखी गईं और प्रकाशित भी हुईं। हमारे कॉलेज का वातावरण गीतमय था। जैसा कि प्रथम प्रश्न के उत्तर में बता चुका हूँ कि डॉ भदौरिया के कारण पहले-पहल गीत ही जन्मा। यदि डॉ भदौरिया न होते तो रचनाकर्म कविता या कहानी से शुरू होता। इसमें मैं उनका ही श्रेय मानता हूँ कि उन्होंने ही मुझे गीत की प्रेरणा दी। नवंबर 1975 में 'केरल ज्योति' मासिक में मेरा प्रथम बार गीत प्रकाशित हुआ। उस समय गीत साहित्य में सौंदर्यबोध आदर्शोन्मुख हुआ करता था। कवि चतुष्टय— निराला, पंत, महादेवी और जयशंकर के बाद का काल होने के कारण गीत में रहस्य की धारा और यथार्थ का पदार्पण दिखाई पड़ता था। यथार्थ को अपने गीत के माध्यम से आदर्श में ढालने का कार्य निराला ने सबसे पहले किया। निराला ही एक ऐसे कवि थे, जिन्हें सच्चाई के मार्ग पर चलने और अभिव्यक्त करने वाला श्रेष्ठ कवि माना जा सकता है। हमारे साहित्य के शैशवकाल में गीत-रचना में कई प्रकार की स्थितियाँ देखने को मिलती हैं, जहाँ गीत सौंदर्य की मार्मिक अभिव्यंजना भी करता है और यथार्थ के सच्चे स्वरूप में भी प्रस्तुत करता है। इसे गीत को नवगीत होने का काल भी कह सकते हैं। डॉ भदौरिया द्वारा सृजित— 'पुरवा जो डोल गई' और 'नदी का बहना मुझमें हो' जैसे गीत (नवगीत) उस समय के प्रेरक गीत रहे हैं। मेरे गीतों में— "धूल भरे गलियारे हैं मेरे गाँव में/ मेहंदी के रंग नहीं उभरेंगे पाँव में" और "हम कितने घाव किये बैठे हैं पाँव में/ और ये चढ़ाई आकाश की" जैसी रचनाएँ उन दिनों हुआ करती थीं।

अवनीश सिंह चौहान— आपने नवगीत लिखना कब और किन परिस्थितियों में प्रारम्भ किया था? आपके नवगीत की रचना-प्रक्रिया क्या है? इस रचना-प्रक्रिया के दौरान आप कथ्य के साथ छंद और लय को किस प्रकार से साधते हैं?

रामनारायण रमण— मैंने नवगीत लिखना 1980 से ही प्रारंभ कर दिया था। इससे एक वर्ष पूर्व 'मैं तुम्हारे गीत गाऊँगा' गीत संकलन प्रकाशित हो चुका था। इस गीत संकलन में दो-तीन नवगीत और शेष परंपरागत गीत ही हैं। मुझे लगा था कि अपने विचारों यानी विषयवस्तु की ताजगी और नवीन शिल्प-विधान के माध्यम से जो नवगीत रचेगा, वह अधिक प्रभावशाली होगा। उस समय नवगीत के अनेक कवि अपनी रचनाओं से नवगीत को समृद्ध कर रहे थे। जहाँ तक रचना-प्रक्रिया का सवाल है तो वह गीत से ही आई लगती है। नवगीत में नवीन समस्याओं और समाधानों के साथ प्रगतिशील विचारों का समावेश उसे समृद्ध बना देता है। मेरा मानना है कि रचना के अनुसार शिल्प-विधान अपने आप आकार ले लेता है। नई अनुभूतियाँ, नये बिम्ब और प्रतीक गढ़ने में मदद करती हैं। शिल्प की नवीनता नवगीत के कलेवर की शोभा है। हम जो कहना चाहते हैं उसमें छंद और लय नवगीत की आत्मा के साथ बँध जाते हैं, अलग से कुछ करना नहीं पड़ता। नवगीत की साधना में 'सधना' अपने आप 'सध' जाता है। समर्पण उसकी आत्म-शक्ति है।

अवनीश सिंह चौहान— आपने अपने जीवन और उससे जुड़ी कठिनाइयों के बारे में अपनी आत्मकथा में विस्तार से चर्चा की है। आपका अपना जीवन-संघर्ष आपके नवगीतों में किस प्रकार से आकार लेता रहा है?

रामनारायण रमण— नवगीतकारों ने शायद आत्मकथा नहीं लिखी है। मैं पहला नवगीतकार हूँ जिसने आत्मकथा लिखी है। आत्मकथा में जीवन के सारे उतार-चढ़ाव, सुख-दुख, अच्छाइयाँ-बुराइयाँ— सभी कुछ लिया ही जाता है और जो बचकर लिखता है वह सच्ची आत्मकथा नहीं होती। तीन बहनें और तीन भाइयों में सबसे बड़ा था और परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। इसलिए कठिनाइयों का मुझे ज्यादा अनुभव है, वह सब मेरी आत्मकथा में वर्णित है। इसलिए स्वाभाविक है कि मेरी कठिनाइयाँ और दुश्वारियाँ मेरी रचनाओं में दिखाई पड़ें। मेरा मानना है कि सच्चा साहित्यकार जाने-अनजाने अपनी रचनाओं में ही फैलता चला जाता है। कितना भी रोका जाए, जीवन की सच्ची रेखाएँ रचना में उतर ही आती हैं। कुछ रचनाकार अवश्य छद्म में रहते हैं अपने को प्रकट नहीं होने देते। भीतर-बाहर एक समान न रहने वालों को मैं रचनाकार नहीं मानता। सच्चा कवि/ साहित्यकार सच्चा ही रहता है। मेरी रचनाएँ प्रायः मेरी आत्मकथा ही होती रही हैं। बस उन्हें समझने की दृष्टि भर चाहिए। मैं जब गाँव से निकला तो नवगीत भी निकला—

मत पूछो अब हाल गाँव का

अब हम नहीं गाँव में रहते।

ऐसे ही हमारा जीवन, हमारी रचना है और हमारी रचना हमारा जीवन।

अवनीश सिंह चौहान— आपके सम्पूर्ण जीवन में कौन-सी समस्या सबसे अधिक विकट रही, जिसका प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव आपकी किसी विशेष रचना या कृति पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है?

रामनारायण रमण— जीवन समस्याओं का जाल है। इस जाल से बचना किसी के लिए भी मुश्किल है। मेरे जीवन में भी तमाम समस्याएँ आईं हैं, जिनका तात्कालिक रचनाओं में प्रभाव पड़ा है। सभी कृतियों के मूल में कोई न कोई समस्या परिलक्षित हुई है, जिसका परिणाम रचना के रूप में सामने आया है। मेरे बहुत सारे नवगीत उन समस्याओं से प्रेरित है।

अवनीश सिंह चौहान— आपको यात्रा-वृत्तांत और आत्मकथा लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली? इन विधाओं के माध्यम से आप क्या सन्देश देना चाहते हैं?

रामनारायण रमण— असल में यात्रा-वृत्तांत और आत्मकथा पढ़ना मुझे अच्छा लगता है। आत्मकथाएँ तो मैं खोज-खोज कर पढ़ता हूँ। आत्मकथा पढ़ने से जीवन की सच्चाई का पता चलता है। सो मेरा भी मन हुआ की आत्मकथा और यात्रा-वृत्तांत लिखूँ। बनारस जैसे शहर की यात्रा करने पर यात्रा-वृत्तांत लिखकर लगा कि अब यात्रा पूरी हुई है। इसी प्रकार अभी मेरी आत्मकथा का प्रथम खंड ही आया है, जिसका नाम है— 'जिंदगी रास्ता है'। जब दूसरा खंड प्रकाशित होगा, तब यह कार्य पूरा होगा। आत्मकथा लिखने की प्रेरणा भी लेखकों को पढ़ने से मिली है। अनेक महिला रचनाकारों सहित तमाम लेखकों की पुस्तकें, आत्मकथा पढ़कर ही लिखने का मन हुआ है। आत्मकथा लिखकर मन हल्का हो गया है। यात्रा-वृत्तांत और आत्मकथाओं में जीवन के अदृश्य संदेश छिपे हैं।

अवनीश सिंह चौहान— आपने सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को केंद्र में रखकर काफी कुछ लिखा-पढ़ा है। 'निराला' पर कार्य करने की कोई विशेष वजह? 'निराला' पर आपने अब तक क्या-क्या कार्य किये हैं और उनका साहित्यिक महत्त्व क्या है?

रामनारायण रमण— निराला आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, मैं ऐसा मानता हूँ। मेरा निवास-स्थान और कर्मस्थली डलमऊ नगर है और निराला की कर्मभूमि और ससुराल होने का डलमऊ को गौरव प्राप्त है। इसलिए हम निराला के लोग हैं, ऐसा मानते हैं। निराला मेरे आदर्श कवि भी हैं। वे 'वह तोड़ती पत्थर', 'विधवा', 'राम की शक्ति पूजा', 'कुकुरमुत्ता' जैसी रचनाओं के सृजनकर्ता हैं; 'चतुरी चमार', 'कुल्ली भाट' और 'बिल्लेसुर बकरिहा' जैसी गद्य रचनाओं के साहित्यकार हैं। वे 'सरोज स्मृति' जैसी रचना के रचनाकार हैं। उन्हें मैंने बचपन में डलमऊ गंगा तट पर हाथ में बड़ा-सा लोटा लिए देखा है। वे हमारे अपने जैसे लगते हैं। वे प्रगतिशील और जुझारू कवि हैं— 'यह कवि अपराजेय निराला।' डलमऊ का होना भी निराला को समझने का अवसर देता रहा है, इसलिए मैंने निराला पर अनेक रचनाओं का सृजन किया है— कविता, गीत में भी और निबंधों-संस्मरणों में भी। 'निराला और डलमऊ' कृति पर वृत्तचित्र तो बना ही, 'कादम्बिनी' और 'नवनीत' जैसी पत्रिकाओं ने 11-12 पृष्ठ की समीक्षाएँ और सारांश छापे। निराला का 'कुकुरमुत्ता दर्शन' की भी काफी सराहना हुई।

निराला पर पुस्तकें निकालने के साथ उनकी मूर्ति भी स्थापित की गई। ‘निराला स्मारक’ का निर्माण किया गया, जिसका मैं प्रमुख संस्थापक सदस्य हूँ; डलमऊ में 'निराला स्मारक' एक विशिष्ट और सुंदर जगह है। इन कृतियों का और स्मृति संचयन का भी साहित्यिक महत्व है। ‘निराला जयंती’ आदि कार्यक्रम किए जाते हैं और निराला की मूल भावना को प्रसारित करने का अवसर इन्हीं से मिलता है।

अवनीश सिंह चौहान— क्या लोकगीत को लोक-संस्कृति का संवाहक माना जाता है? क्या जनगीत को सर्वहारा वर्ग का प्रवक्ता कहा जाता है? क्या नवगीत को समसामयिक हिंदी कविता कहा जाता है? यदि हाँ, तो क्यों?

रामनारायण रमण— 'हाँ', यह इसलिए कि लोकगीत लोक का प्रतिनिधित्व करता है और जनगीत सर्वहारा का। इसीप्रकार नवगीत को भी सामयिक गीत कहना अनुचित न होगा। ये सभी विधाएँ अपनी मूल पृष्ठभूमि में केंद्रित हो आगे बढ़ी हैं।

अवनीश सिंह चौहान— आप अपने लेखन (गद्य एवं पद्य) में भाषा और संवेदना का प्रयोग बहुत ही संतुलित ढंग से करते हैं? भाषा की सृजनात्मकता को केन्द्र में रखकर रचना-कर्म करने के लिए क्या आवश्यक है?

रामनारायण रमण— भाषा का परिमार्जन अभ्यास द्वारा किया जाता है। अध्ययन और अध्यवसाय से भाषा समृद्ध और प्रवहमान होती है। साहित्य के पठन-पाठन और अनुशीलन से भी भाषा में निखार आता है और हमारी संवेदना अपना आकार ग्रहण करती है। सृजन करते समय वही भाषा अपने आप काम आती है जो पहले से हमारे अभ्यास में है। भाषा की सृजनात्मकता को केंद्र में रखकर रचना कर्म करने के लिए अभ्यास और साधना आवश्यक है।

अवनीश सिंह चौहान— भाषा क्या है? भाषा से अनुभव, काव्यानुभव और आलोचनात्मक अनुभव कैसे होता है?

रामनारायण रमण— हम अपने विचार व्यक्त कर देने के लिए जिन शब्द-समूहों का उच्चरण उच्चारण करते हैं, वह हमारी भाषा होती है। भाषा से हम अपने भाव व्यक्त करने में समर्थ होते हैं। भाषा संवाद का आधार होती है। भाषा द्वारा ही हम एक दूसरे के अनुभवों को साझा करते हैं। काव्य हो या आलोचना, सबको संप्रेषित करने के लिए भाषा ही मूल स्रोत है। कोई भी भाषा अपने निवासियों के लिए एक वरदान है।

अवनीश सिंह चौहान— काव्य रचना और आलोचना में कौन-कौन-से दृष्टिगत सामंजस्य दिखाई पड़ते हैं? कृपया बताएँ कि रचना को जीवन का अर्थविस्तार क्यों कहा जाता है और आलोचना को उस रचना का अर्थविस्तार क्यों कहा जाना चाहिए?

रामनारायण रमण— आजकल आलोचनात्मक लेखन बहुत हो रहा है। इसलिए आलोचना पर बात करना बहुत उचित जान पड़ता है। काव्य रचना और आलोचना में यथार्थबोध, प्रगतिशीलता और स्पष्टता जैसे सामंजस्य दिखाई पड़ते हैं। और दूसरा प्रश्न कि रचना को जीवन का अर्थ विस्तार क्यों कहा जाता है, क्योंकि रचना जीवन से जुड़ी है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियाँ रचना को जन्म देती है और रचना उन परिस्थितियों सहित जीवन का विस्तार जैसी लगती है। इसी प्रकार आलोचना उस रचना का अर्थ विस्तार ही है। आलोचना रचना के भीतर के अर्थ संदर्भ खोलकर रख देती है।

अवनीश सिंह चौहान— आज दुनियाभर में हजारों पुस्तकें प्रतिवर्ष लिखीं जा रही हैं, इनके अनेकों संस्करण प्रकाशित किये जा रहे हैं। किन्तु ज्यादातर रचनाकारों के पास अपना पाठकवर्ग नहीं है। ऐसे में लिखने के क्या माने? लेखक की सामाजिक हैसियत के क्या माने?

रामनारायण रमण— यह सही है कि दुनिया में हजारों पुस्तकें प्रतिवर्ष लिखी जा रहे हैं, लेकिन ज्यादातर साहित्यकारों के पास अपना पाठकवर्ग नहीं है। मेरा मानना है कि दुनिया तेजी से बदल रही है और सूक्ष्म से सूक्ष्म उपकरण/ साधन ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे पास उपलब्ध हैं। ऐसे में पुस्तकों का महत्व और उपयोग कम हुआ है। लेकिन पुस्तकें ज्ञान प्राप्त करने में जिस प्रकार हमारा सहयोग करती हैं, वैसा अन्य माध्यमों से संभव नहीं है। पुस्तकों की हमारे समाज को बहुत जरूरत है। पुस्तकों का साथ छूटना स्वयं के टूटने के बराबर है। लेखक की सामाजिक हैसियत कम हुई है, जिसका मुख्य कारण तथाकथित और शौकिया रचनाकारों का उदय होना है। साधक रचनाकार के पाठक भले ही कम हों, उसके साहित्य की समाज में आज भी प्रतिष्ठा है।

अवनीश सिंह चौहान— क्या आज ज्यादातर हिंदी लेखकों को अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के लिए स्वयं धन खर्च करना पड़ता है? क्या उन्हें ‘रॉयल्टी’ आदि के रूप में प्रकाशकों से कोई लाभ मिलता है? यदि नहीं, तो ऐसा क्या किया जाना चाहिए जिससे लेखकों का हित हो सके?

रामनारायण रमण— यह बिल्कुल सही है कि ज्यादातर लेखक स्वयं धन खर्च कर पुस्तकें प्रकाशित करवाते हैं। उन्हें रॉयल्टी आदि के रूप में कुछ भी नहीं मिलता। यदि पुस्तक का संस्करण तुरंत भी बिक गया और दूसरा-तीसरा भी निकल गया, तो भी प्रकाशक लेखक को कुछ नहीं देता। उसे अनेक प्रकार के झांसे देता है। इसके लिए सरकार को लोगों के साथ मिलकर ऐसे नियम बनाने चाहिए जिससे लेखक को उसका लाभ मिल सके। सरकार को भी चाहिए कि वह अच्छी पुस्तकों का ईमानदारी से चयन कर उन्हें प्रकाशित करे और लेखक को रॉयल्टी आदि लाभ दे।

अवनीश सिंह चौहान— आज ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकाएँ या तो सदस्यता शुल्क के आधार पर या फिर सरकारी या गैर-सरकारी संगठनों से थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद प्राप्त कर चल रही हैं। इन पत्रिकाओं का एक सीमित पाठकवर्ग है— पत्रिका से जुड़े गिने-चुने साहित्यकार (जोकि जयादातर उक्त पत्रिकाओं के सदस्य हैं या रहे हैं) और कुछ अन्य लोग। ऐसी पत्रिकाओं से साहित्य का प्रचार-प्रसार और सामाजिक चेतना लाने का महत्वपूर्ण कार्य कितना संभव है?

रामनारायण रमण— ज्यादातर पत्रिकाएँ सहयोगी आधार पर ही चल रही हैं। लगभग सभी पत्रिकाओं से जुड़े साहित्यकार ही उन्हें चला रहे हैं। साहित्य के प्रचार-प्रसार के अलावा साहित्य के माध्यम से विभिन्न प्रकार का ज्ञान भी वितरित होता है इन्हीं पत्रिकाओं से। ये पत्रिकाएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। जो भी संभव है, वह इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से किया जा रहा है।

अवनीश सिंह चौहान— साहित्य के परिप्रेक्ष्य में आज के मनुष्य की अभिरुचि क्या है? मंचीय लेखन और अकादमिक लेखन जन-रुचि का परिष्कार करने में किस प्रकार से सहायक हैं?

रामनारायण रमण— साहित्य के क्षेत्र में आज मनुष्य की अभिरुचि कम हुई है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के अनेक उपलब्ध साधन अधिक सुविधाजनक जान पड़ते हैं। कंप्यूटर युग में सारा कुछ देखने-सुनने तक सिमट कर रह गया है। मनुष्य की चेतना चिंतन के स्तर पर संक्षिप्त हुई है। मनोरंजन भी निचले पायदान तक गिर गया है। मंचीय लेखन की भी गिरी दशा है, वह लोगों की तालियों के लिए लिखा जाता है। मंच से जन-चेतना का परिष्कार अब संभव नहीं लगता? हाँ, अकादमिक लेखन में अब भी गुणवत्तापूर्ण लेखन कार्य हो रहा है, मगर उसका प्रचार-प्रसार ‘नहीं’ के बराबर है। आज अच्छे लेखक तथाकथित लेखों के आगे बौने साबित हो रहे हैं। भ्रष्ट बुद्धि हर जगह अपना तांडव खुलेआम खेल रही है। अकादमिक लेखन को जन-जन तक पहुँचा कर जनरुचि का परिष्कार किया जा सकता है।

अवनीश सिंह चौहान— वर्तमान में तमाम नवगीतकार अच्छा लेखन कर रहे हैं। अपनी पसंद के कुछ वरिष्ठ नवगीतकारों का उल्लेख करते हुए बताएँ कि किस प्रकार से नवगीत को जन-जन तक पहुँचाया जा सकता है?

रामनारायण रमण— यह सही कहा आपने कि वर्तमान में बहुत सारे नवगीतकार अच्छा लेखन कर रहे हैं, इससे नवगीत के भविष्य को लेकर चिंता की जरूरत नहीं है। मेरी दृष्टि में अनेक रचनाकार नवगीत रचना में अच्छा कार्य कर रहे हैं। सबका नाम नहीं लिखा जा सकता, परंतु कुछ नाम उदाहरण के तौर पर बताए जा सकते हैं, जैसे— गुलाब सिंह, नचिकेता, राम सेंगर, वीरेंद्र आस्तिक, मधुकर अष्ठाना, यतीन्द्रनाथ राही, ओमप्रकाश सिंह आदि ऐसे रचनाकार हैं जिनसे नवगीत समृद्ध हुआ है। नवगीत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए उसे वर्तमान समस्याओं से टकराना होगा और समाधानों को खोजना होगा। जब आमजन की वाणी का प्रतिनिधित्व नवगीत करेगा, तभी वह जन-जन तक पहुंचेगा। नवगीतकारों को ताजी विषयवस्तु और नये शिल्प-विधान के साथ समाज में प्रस्तुत होना होगा। जन सरोकारों से लैस रचना सहज ही आमजन को स्वीकार्य हो जाती है।

अवनीश सिंह चौहान— आम जनता के लिए आपका सन्देश?

रामनारायण रमण— साहित्य अच्छे मनुष्य के निर्माण में सहायक है। अच्छा साहित्य जन-जन तक पहुँचाया जाए तो एक अच्छा समाज निर्मित हो सकता है; और आदर्श समाज आदर्श राष्ट्र का निर्माण करता है। ऐसे में जनता को चाहिए कि वह अच्छा साहित्य पढ़े और उसका लाभ उठाए। 



प्रस्तुति: 
'वंदे ब्रज वसुंधरा' सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

Interview: Ramnarayan Raman in Conversation with Abnish Singh Chauhan

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