डॉ वीरेन्द्र निर्झर जाने-माने कवि, आलोचक व आचार्य हैं। वे कविता को 'संवेदना' और भावों को 'आगार' मांनकर अपनी पीड़ा को भलीभाँति शब्दबद्ध करना जानते हैं। इनके नवगीतों में सारगर्भित एवं सामयिक विचार, भावनाएँ, अनुभूतियाँ आदि संवेदनापूर्ण तरीके से अभिव्यक्त हुई हैं। शायद इसीलिये सामाजिक यथार्थ, संघर्ष और सहृदयता का सहज सम्प्रेषण इनके नवगीतों को पठनीय एवं प्रासंगिक बना देता है।
इनका जन्म 15 अक्टूबर 1949 को महोबा, उत्तर प्रदेश में हुआ। सेवासदन महाविद्यालय, बुरहानपुर (म.प्र.) में हिंदी विभागाध्यक्ष रह चुके डॉ निर्झर की अब तक आधा दर्जन से अधिक कृतियाँ— 'ओंठों पर लगे पहरे', 'सपने हाशिये पर' व 'खिड़की पर सूरज बैठा है' (नवगीत संग्रह), 'विप्लव के पल' (काव्य संग्रह), 'ठमक रही चौपाल' (दोहा संग्रह),'वार्ता के वातायन' (वार्ता संकलन), 'संघर्षों की धूप' (दोहा सतसई) आदि प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने 'कजली समय' व 'वीर विलास' (पाठालोचन), 'बुंदेली फाग काव्य : एक मूल्यांकन', 'आल्हाखण्ड : शोध और समीक्षा', 'हिन्दी साहित्य में पर्यावरणीय चेतना', 'ताप्ती तट से' (कविता-संग्रह) आदि का सम्पादन किया है।
आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों से इनकी कहानियाँ, कविताएँ, रूपक एवं वार्ताएँ प्रसारित हो चुकी हैं। सम्प्रति : निदेशक, डॉ जाकिर हुसैन ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूट्स, बुरहानपुर। संपर्क : एम.बी./120, न्यू इंदिरा कालोनी, बुरहानपुर-450331 (म.प्र.)
1. समय के संदर्भ
हैं नहीं अनुकूल जो
वे प्रश्न सब छोड़े गए हैं
समय के संदर्भ ही
मोड़े गए हैं
हैं बड़े पदनाम
पर कद बहुत छोटे
शेर का अभिनय यहाँ
करते अनाड़ी कुछ बिलौटे
सत्य के अंदाज में
मिथ्याचरण जोड़े गए हैं
हैं नहीं संवाद,
वाद-विवाद तीखे
पजाकर नाखून
लड़ते हैं सभी हिंसक सरीखे
भावना के सेतु
सेंधें लगाकर फोड़े गए हैं
साजिशों में प्रगति—
की गति ही रुकी है
यह कुतुबमीनार
गुंबद की तरफ कसदन झुकी है
फूल गजरे के लिए
हित, स्वार्थ में तोड़े गए हैं।
2. नीम हुए संबंध
प्रश्न नहीं
इसका या उसका
किसका खून बहा?
अपना घर भी अपना नहीं रहा
एक-दूसरे का लिहाज
आपस की समझ मरी
नीम हुए संबंध
दरक दो फाड़ हुई बखरी
गजब शराफत, क्या कुछ
किसने किसको नहीं कहा
स्वारथ के परजीवी सब
आश्रय ही लील गए
आलपीन-सी चुभती बातों—
से दिल कील गए
जो न सोचा कभी
आज वह देखा सुना सहा
अपने रँग, रस में वे डोलें
उनके अंग फटें
तीतुर-तीतुर लड़े तीतुरी
पीछे नहीं हटें
राहु, केतु ने एक-दूसरे—
का ज्यों गला गहा।
3. संतो सुनो
संतो सुनो तुम्हारी करनी
साथ तुम्हारे
मन में अधम विकार भरा है
शुद्ध आत्मा नहीं कहीं पर
इस दर से उस दर तक बैठी
भोगासक्ति देह देहरी पर
तिलक, त्रिपुंड, भस्म से मण्डित
झुके-झुके हैं माथ तुम्हारे
ये संसार असार सार-सा
माया-महल अजूब खूब है
सुख के मेले में सुख त्यागी
बैरागी मन रहा डूब है
राम नाम की लूट छोड़कर
भटक गए हैं पाथ तुम्हारे
हो कबीर के अनुयायी, पर—
नहीं जला पाए घर अपना
भाँति-भाँति की खोल दुकानें
भोग रहे वैभव, सुख, सपना
उजियारे के विज्ञापन पर
तम में चहुरे हाथ तुम्हारे।
4. लेकर हाथ चलें
ओस नहाई इस बेला में
कुछ पल साथ चलें,
लेकर हाथ चलें
तुम मेरी मंशा को समझो
मैं तेरे दुख को
महसूसें कुछ देर इस तरह
बासंती सुख को
अपने अहं, दुराग्रह के
बैलों को नाथ चलें
कुछ अतीत की परिचर्चा हो
कुछ कल की बातें
धुली-धुली हो शरद चाँदनी
सावन, बरसातें
दहलीजें अवरोध बनें तो
झुक कर माथ चलें
एक-दूसरे के सपनों में
ऐसे खो जाएँ
क्षण भर को यह समय रुक सके
ऐसे हो जाएँ
निर्मल नेह, दोस्ती की
गाथाएँ गाथ चलें।
5. तुम से मिलकर
तुम से मिलकर
बंजर मन में
नूतन फूल खिले
भूल गई सारे दुःख-दर्दों—
की छाया गहरी
जेठ मास की तपन शूल-सी
चुभती दोपहरी
भूल गईं बेरहम हवाएँ
शिकवे, सिकन, गिले
बुझी हुई चिमनी की फिर से
रोशन हुई शिखा
आशाओं के आसमान ने
अभिनव छन्द लिखा
असमंजस की बीती रातें
उजले दिवस मिले
फिर जिजीविषा ने सनेह के
नूतन पर तौले
आंगन में किरणों के दल
उतरे हौले-हौले
फिर बासंती बही दूर तक
तरु, तृण, पात हिले।
Five Hindi Poems (Navgeet) of Dr Virendra 'Nirjhar'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: